Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 207
________________ १९० जैनागम दिग्दर्शन है कि उनका लोक-जीवन के साथ अत्यन्त निकटतापूर्ण सम्पर्क रहा है। उस काल के लोक-जीवन का एक सजीव चित्र उपस्थित कर पाना उनके लिए सहजतया सम्भव हो सका है। जन-सम्पर्क के साथसाथ वे कितने व्यवहार-निपुण थे, प्रस्तुत सामग्री से यह भी प्रकट होता है। जैन-सन्तों को अपने दर्शन तथा धर्म का गहन अध्ययन तो था ही, अध्ययन की अन्यान्य विधाओं में भी उनकी गहरी पहुंच थी। वास्तव में उनका अध्ययन बड़ा व्यापक तथा सार्वजनीन था। लोकजीवन तथा लोक-साहित्य के गवेषणापूर्ण अध्ययन की दृष्टि से भी चूणियों का अप्रतिम महत्त्व है। प्रागम-ग्रन्थों के अतिरिक्त तत्सम्बद्ध साहित्य के इतर ग्रन्थों पर भी चूर्णियां लिखे जाने का क्रम रहा। उदाहरणार्थ, कर्म-ग्रन्थ, श्रावक-प्रतिक्रमण जैसे ग्रन्थों पर भी चर्णियां रची गयीं। टीकाएं अभिप्रत __ अागम ही जैन संस्कृति, धर्म, दर्शन, प्राचार-विचार; संक्षेप में समग्र जैन जीवन के मूल आधार हैं; अतः उनके प्राशय को स्पष्ट, स्पष्टतर और सुबोध्य बनाने की अोर जैन आचार्यों तथा मनीषियों का प्रारम्भ से ही प्रयत्न रहा है। फलतः जहाँ एक ओर नियुक्तियों, भाष्यों और चणियों का सर्जन हमा, दूसरी ओर टीकाओं की रचना का क्रम भी गतिशील रहा। नियुक्तियों व भाष्यों की रचना प्राकृतगाथाओं में हुई तथा चूर्णियां प्राकृत-संस्कृत-गद्य में लिखी गयीं, वहां टीकाएं प्रायः संस्कृत में रचित हुई। शब्द-सर्जन की उर्वरता, व्योत्पत्तिक विश्लेषण की विशदता तथा अभिव्यंजना की असाधारण क्षमता आदि संस्कृत की कुछ असामान्य विशेषताएं हैं, जिन्होंने जैन तथा बौद्ध लेखकों को विशेष रूप से आकृष्ट किया । फलतः उत्तरवर्ती काल में जैन तथा बौद्ध सिद्धान्त जब विद्वद्गम्य, प्रांजल तथा प्रौढ़ स्तर एवं दार्शनिक पृष्ठ-भूमि पर अभिव्यक्त व प्रतिष्ठित किये जाने लगे, तब उनका भाषात्मक परिवेश अधिकांशतः संस्कृत-निबद्ध रहा। जैन वाङमय में प्राचार्य सिद्धसेन के सन्मति-तर्क प्रकरण के अतिरिक्त प्रायः प्रमाणशास्त्रीय ग्रन्थ संस्कृत में रचे गये । यही सब हेतु थे कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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