Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 210
________________ प्रागमों पर व्याख्या-साहित्य १६३ प्राचार्य प्रमयदेव प्रभृति उत्तरवर्ती टीकाकार बारहवीं-तेरहवीं ई० शती में अनेक टीकाकार हुए, जिन्होंने टीकाओं के रूप में महत्वपूर्ण व्याख्या-साहित्य का सर्जन किया। आचार्य अभयदेवसूरि ने स्थानांग, समवायांग, व्याख्या-प्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण तथा विपाक श्र त; इन नौ अंग-ग्रन्थों पर विद्वत्तापूर्ण टीकायों की रचना की, जिनका जैन साहित्य में बड़ा समादत स्थान है। नौ अंगों पर टीकाए रचने के कारण ये 'नवांगी टीकाकार" के नाम से विश्रुत हैं। इनका समय बारहवीं ई० शताब्दी है। बारहवीं-तेरहवीं शती के टीकाकारों में श्री द्रोणाचार्य, मलधारी हेमचन्द्र, श्री मलयगिरि एवं श्री क्षेमकीर्ति आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। सोलहवीं शती के अन्तिम भाग में हुए श्री पुण्यसागरोपाध्याय, श्री शान्तिचन्द्र भी विश्रुत टीकाकार थे। विशेषता : महत्त्व टीकाओं ने प्रागम गत निगूढ़ तत्वों की अभिव्यक्ति और विश्लेषण का तो महत्वपूर्ण कार्य किया ही, एक बहुत बड़ी साहित्यिक निधि भी प्रस्तुत की, जिसका असाधारण महत्व है। विद्वान् टीकाकारों ने मानव-जोवन के विभिन्न अंगों और पहलुओं का जो विवेचनविश्लेषण किया वह मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्यिक, सामाजिक आदि अनेक पहलुगों का मार्मिक संस्पर्श लिए हुए है। यह विशाल वाङमय उत्तरवर्ती साहित्य के सर्जन में निःसंदेह बड़ा उपजीवक एवं प्रेरक रहा । फलतः जैन-वाङमय का स्रोत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश तथा अन्यान्य लोक-भाषाओं का मा यम लिये उत्तरोत्तर पल्लवित, पुष्पित एवं विकसित होता गया। इतना ही नहीं, जैनेतर साहित्य की भी अनेक विधायें इससे प्रभावित तथा अनुप्राणित हुईं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 208 209 210 211 212