Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 190
________________ पैतालीस प्रागम १७३ सदसद्-विवेकपूर्वक साधक आमरण अनशन द्वारा देह-त्याग करता है । धर्म-संग्रह नामक जैन आचार-विषयक ग्रन्थ के तृतीय अधिकरण में इस सम्बन्ध में विशद वर्णन है। प्रस्तुत प्रकीर्णक में अन्यान्य विषयों के साथ-साथ भक्त-परिज्ञा का विशेष रूप से वर्णन है। मुख्यतः उसी को आधार मान कर प्रस्तुत प्रकीर्णक का नामकरण किया गया है। प्रकीर्णक का कलेवर एक सौ बहत्तर गाथामय है। इसमें भक्तपरिज्ञा के साथ-साथ इंगिनी और पादोपगमन का भी विवेचन है, जो उसी (भक्त-परिज्ञा) की तरह विवेकपूर्वक अशन-त्याग द्वारा प्राप्त किये जाने वाले मरण-भेद हैं। इस कोटि के पण्डित-मरण के ये तीन भेद माने गये हैं। कनिपय महत्वपूर्ण प्रसंग प्रकीर्णक में दर्शन (श्रद्धा-तत्त्व-आस्था) को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। कहा गया है कि जो दर्शन-भ्रष्ट हो जाते हैं, उन्हें निर्वाण-लाभ नहीं हो सकता। साधकों के ऐसे अनेक उदाहरण उपस्थित किये गये हैं, जिन्होंने असह्य कष्टों तथा परिषहों को प्रात्मबल के सहारे भेलते हुए अन्ततः सिद्धि लाभ किया। मनोनिग्रह पर बहत बल दिया गया है। कहा गया है कि साधना में स्थिर होने के लिए मन का निग्रह या नियन्त्रण अत्यन्त आवश्यक है। यहां मन को मर्कट की तरह चपल तथा क्षण भर भी शान्त नहीं रह सकने वाला बताया है। उसका विषय-वासना से परे होना दुष्कर है। स्त्रियों की इस प्रकीर्णक में कड़े शब्दों में चर्चा की गयी है। उन्हें सर्पिणी से उपमित किया गया है । उन्हें शोक-सरित्, अविश्वास भूमि, पाप-गुहा और कपट-कुटीर जैसे हीन नामों से अभिहित किया गया है। इस प्रकीर्णक के रचनाकार श्री वीरभद्र माने जाते है । श्री -गुणरत्न द्वारा अवचूरि की रचना की गयी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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