Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 188
________________ पैतालीस मागम १७१ नामोल्लेख है, जिससे अनुमान किया जाता है कि वे इसके रचयिता रहे हों। श्री भुवनतुग द्वारा वृत्ति की रचना की गयी और श्री गुणरत्न द्वारा अवचूरि की। २. पाउर-पच्चक्खाण (प्रातुर-प्रत्याख्यान) नाम : प्राशय : विषय | आतुर शब्द सामान्यतः रोग-ग्रस्त-वाची है। आतुरावस्था में मनुष्य की दो प्रकार की मानसिक अवस्थाएं सम्भावित हैं। जिन्हें देह, दैहिक भोग और लौकिक एषणाओं में आसक्ति होती है, वे सांसारिक मोहाच्छन्न मनः-स्थिति में रहते हैं। भुक्त भोगों की स्मृति और अप्राप्त भोगों की लालसा में उनका मन पाकुल बना रहता है। अपने अन्तिम काल में भी वे इसीलिये प्रत्याख्यानोन्मुख नहीं हो पाते। संसार में अधिकांश लोग इसी प्रकार के हैं। अन्ततः मरना तो होता ही है, मर जाते हैं। वैसा मरण बाल-मरण कहा जाता है। यहां बाल का अभिप्राय अज्ञानी से है। दूसरे प्रकार के वे व्यक्ति हैं, जो भोग तथा देह की नश्वरता का चिन्तन करते हए प्रात्म-स्वभावोन्मख बनते हैं। दैहिक कष्ट तथा रोग-जनित वेदना को वे प्रात्म-बल से सहते जाते हैं और अपने भौतिक जीवन की इस अन्तिम अवस्था में खाद्य, पेय आदि का परिवर्जन कर, आमरण अनशन, जो महान् प्रात्म-बल का द्योतक है, अपना कर शुद्ध चैतन्य में लीन होते हुए देह-त्याग करते हैं। जैन परिभाषा में यह 'पण्डित-मरण' कहा जाता है । प्रस्तुत प्रकीर्णक में बाल-मरण तथा पण्डित-मरण का विवेचन है, जिसकी स्थिति प्रायः आतुरावस्था में बनती है । सम्भवतः इसी पृष्ठ-भूमि के आधार पर इसका नाम प्रातूर-प्रत्याख्यान रखा गया हो। इसमें प्रतिपादित किया गया है कि प्रत्याख्यान से ही सदगति या शाश्वत शान्ति सधती है। चतुःशरण की तरह इसके भी रचयिता श्री वीरभद्र कहे जाते हैं और उसी की तरह श्री भुवनतुग द्वारा वृत्ति तथा श्री गुणरत्न द्वारा अवचूरि की रचना की गयी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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