Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 187
________________ १७० जैनागम दिग्दर्शन औपचारिकतया तीर्थङ्कर के शिष्य कहे भी जा सकते हैं; अतः प्रत्येकबुद्धों द्वारा प्रकीर्णक-रचना की संगतता व्याहृत नहीं होती।' प्राप्त प्रकीर्णक वर्तमान में जो मुख्य-मुख्य प्रकीर्णक संज्ञक कृतियां प्राप्त हैं, वे संख्या में दश हैं : १. चउसरण (चतुःशरण), २. पाउर-पच्चक्खाण (आतुर-प्रत्याख्यान), ३. महापच्चक्खाण (महा-प्रत्याख्यान), ४. भत्त-परिण्णा (भक्त-परिज्ञा), ५. तन्दुलवेयालिय (तन्दुलवैचारिक), ६. सथारग (संस्तारक), ७. गच्छायार (गच्छाचार), ८. गणिविज्जा (गणि-विद्या), ६. देविंद-थय (देवेन्द्र-स्तव), १०. मरणसमाही (मरण-समाधि)। १. चउसरण (चतुःशरण) जन परम्परा में अहत्, सिद्ध, साधु और जिन प्ररूपित धर्म; ये चार शरण पाश्रयभूत माने गये हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जैन संस्कृति के ये अाधार-स्तम्भ हैं। इन्हीं चार के आधार पर इस प्रकीर्णक का नाम 'चतुःशरण' रखा गया है। दुष्कृत त्याज्य हैं, सुकृत ग्राह्य; यह धर्म का सन्देश है। इस प्रकरण में दुष्कृतों को निन्दित बताया गया है और सुकृतों को प्रशान्त, जिसका आशय है कि मनुष्य को असत् कार्य न कर सत्कार्य करने में तत्पर रहना चाहिए। इसको कुशलानुबन्धी अध्ययन भी कहा जाता है, जिसका अभिप्राय है कि यह कुशल-सुकृत या पुण्य की अनुबद्धता का साधक है। इसे तीनों सन्ध्यायों में ध्यान किये जाने योग्य बताया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि यह प्रकीर्णक विशेष उपादेय माना जाता रहा है। चतुःशरण की अन्तिम गाथा में श्री वीरभद्र का १. प्रत्येकबुद्धानां शिष्यभावो विरुध्यते, तदेतदसमीचीनम, यतः प्रव्राजकाचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यमावो निषिष्यते, न तु तीर्थकरोपदिष्टशासनप्रतिपन्नत्वेनापि, ततो न कश्चिद्दोः।। -अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ. ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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