Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 198
________________ 'पैतालीस प्रागम परिज्ञा, आजीवकल्प, सिद्धप्राभृत, आराधना-पताका, द्वीप-सागरप्रज्ञप्ति, ज्योतिष-करण्डक, अंग-विद्या तथा योनि-प्राभृत; आदि उल्लेखनीय हैं। उपसंहार __ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय द्वारा मुख्यतया निम्नांकित पैंतालीस आगम स्वीकृत हैं, जिनका पिछले पृष्ठों में विश्लेषण किया गया है : अंग-११, उपांग-१२, छेद-६, मूल-४, नन्दी-अनुयोग द्वार-२, प्रकीर्णक-१० । कुल-४५। अन्य प्रकीर्णक ग्रन्थों के मिलाने पर इनकी संख्या चौरासी तक हो गयी। किसी समय श्वेताम्बर मतिपूजक सम्प्रदाय के गच्छों की संख्या भी चौरासी थी । हो सकता है, इस संख्या ने भी वैसा करने की प्रेरणा दी हो। .. श्वेताम्बर सम्प्रदायों के अन्तर्गत स्थानकवासी सम्प्रदाय तथा तेरापंथ सम्प्रदाय द्वारा उपयुक्त पैंतालीस प्रागमों में से बत्तीस आगम प्रामाणिक रूप में स्वीकार किये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं : अंग-११ उपांग-१२ छेद-४-१-निशीथ, २-व्यवहार, ३-बृहत्कल्प, ४-दशाश्रुतस्कन्ध मूल-४-१-दशवैकालिक, २-उत्तराध्ययन, ३-अनुयोग-द्वार, - ४-नन्दी आवश्यक-१। कुल ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212