Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 183
________________ १६६ जैनागम दिग्दर्शन हैं:-श्रोत्रेन्द्रिय- प्रत्यक्ष, चक्षुः-इन्द्रिय- प्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रिय- प्रत्यक्ष, रसनेन्द्रिय- प्रत्यक्ष तथा स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष । ___ नो-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का वर्णन करते हुए उसे अवधिज्ञान-प्रत्यक्ष, मन:-पर्यय-ज्ञान- प्रत्यक्ष तथा केवल-ज्ञान- प्रत्यक्ष; इस प्रकार इसे तीन प्रकार का बतलाया गया है। अनुमान अनुमान का वर्णन करते हुए उनके पूर्ववत् , शेषवत् तथा दृष्टि-साधर्म्य नामक तीन भेदों की चर्चा की गई है। पूर्ववत् अनुमान का स्वरूप समझाने के लिए सूत्रकार ने एक उदाहरण दिया है : जैसे कोई माता का पुत्र बाल्यावस्था में अन्यत्र चला गया और युवा हो कर अपने नगर वापिस पाया। उसे देख कर उसकी माता पूर्वदृष्ट अर्थात् पहले देखे हुए लक्षणों से अनुमान करती है कि यह पुत्र मेरा ही है।' इसी को पूर्ववत् अनुमान कहते हैं। शेषवत् अनुमान पांच प्रकार का है : कार्यतः, कारणतः, गणतः, अवयवतः और आश्रयतः । कार्य से कारण का ज्ञान होना कार्यतः अनुमान है । शंख, भेरी आदि के शब्दों से उनके कारणभूत पदार्थों का ज्ञान होना इसी प्रकार का अनुमान है। कारणों से कार्य का ज्ञान कारणतः अनुमान कहलाता है । तन्तुओं से पट बनता है, मिट्टी के पिण्ड से घट बनता है प्रादि उदाहरण इसी प्रकार के अनुमान के हैं । गण के ज्ञान से गुणी का ज्ञान करना गणतः अनुमान है । कसौटी से स्वर्ण की परीक्षा, गंध से पुष्प की परीक्षा आदि इसी प्रकार के अनुमान के उदाहरण हैं। अवयवों से अवयवी का ज्ञान होना अवयव अनुमान है । शृगों से महिष का, शिखा से कुक्कुट का, दांतों से हाथी का, दाढ़ों से वाराह-सूअर का ज्ञान इसी कोटि का अनुमानजन्य ज्ञान है। साधन से साध्य का अर्थात् प्राश्रय से प्राश्रयी का ज्ञान प्राश्रयतः अनुमान है । धूम्र से अग्नि का, बादलों से जल का, अभ्र-विकार से वृष्टि का, सदाचरण से कुलीन पुत्र का ज्ञान इसी प्रकार का अनुमान है। १. माया पुत्त जहा नळं, जुवाणं पुणरागयं । काई पच्चभिजाणेज्जा, पुवलिंगेरण केणई ।। -गा० १५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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