Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 181
________________ १६४ जैनागम दिग्दर्शन सुस्सूसइ पडिपुच्छइ, सुणेइ गिण्हइ य ईहए यावि । तत्तो अपोहए वा, धारेइ करेइ वा सम्मं ॥ -गा० ६५ अनुयोग अर्थात् व्याख्यान की विधि बताते हुए प्राचार्य कहते हैं कि सर्वप्रथम सूत्र का अर्थ बताना चाहिए, तदनन्तर उसकी नियुक्ति करनी चाहिए और अन्त में निरवशेष सम्पूर्ण बातें स्पष्ट कर देनी चाहिए : - सुत्तत्थो खलु पढमो, बीनो निज्जुत्तिमीसियो भणियो। तइनो य निरवसेसो, एस विही होइ अणुप्रोगे। -गा०६७ श्री जिनदास महत्तर ने नन्दी-सूत्र पर चूणि को रचना की। प्राचार्य हरिभद्र तथा प्राचार्य मलयगिरि ने इस पर टीकाओं का निर्माण किया। ६. अनुयोगद्वार . नन्दी की तरह यह सूत्र भी अर्वाचीन है, जो इसकी भाषा तथा वर्णन-क्रम से गम्य है। इसके रचयिता आर्य रक्षित माने जाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न अनुयोगों से सम्बद्ध विषयों का आकलन है। विशेषतः संख्या-क्रम-विस्तार का जो गणितानुयोग का विषय है, इसमें विशद विवेचन है। यह ग्रन्थ प्राय प्रश्नोत्तर की शैली में रचित है। सप्त स्वर प्रसंगोपात्त इसमें षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद संज्ञक सात स्वरों का विवेचन है। स्वरों के उत्पत्ति स्थान के सम्बन्ध में कहा गया है कि षड्ज स्वर जिह्वा के अग्र-भाग से उच्चरित होता है। ऋषभ स्वर का उच्चारणस्थान हृदय है । गान्धार स्वर कण्ठाग्र से निःसृत होता है। मध्यम स्वर का स्थान जिह्वा के मध्य भाग से होता है । पंचम स्वर नासिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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