Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 174
________________ पंतालीस प्रागम १५७ और विपुलमति उसी को ढ़ाई अंगुल अधिक, विपुलतर, विशुद्धतर तथा स्पष्टतर जानता - देखता है। काल की अपेक्षा से ऋजुमति पल्योपम के असंख्यातवें भाग के भूत व भविष्य को जानता - देखता है और विपूलमति उसी को कुछ अधिक विस्तार एवं विशुद्धिपूर्वक जानता - देखता है। भाव की अपेक्षा से ऋजुमति अनन्त भावों (भावो के अनन्तवें भाग) को जानता - देखता है और विपुलमति उसी को कुछ अधिक विस्तार एवं विशुद्धिपूर्वक जानता व देखता है । संक्षेप में मनः पर्यय ज्ञान मनुष्यों के चिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला है, मनुष्य-क्षेत्र तक सीमित है तथा चारित्र-युक्त पुरुष के क्षयोपशम गुण से उत्पन्न होने वाला है : मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचिंतिपत्थपागडणं । माणुसखित्तनिबद्ध, गुणपच्चइअं चरित्तवयो। -सूत्र १८, गा० ६५ केवल-ज्ञान केवलज्ञान दो प्रकार का है : भवस्थकेवलज्ञान और सिद्धकेवलज्ञान । भवस्थ केवलज्ञान अर्थात् संसार में रहे हुए अर्हन्तों का केवलज्ञान । वह दो प्रकार का है : सयोगिभवस्थ केवलज्ञान और अयोगिभवस्थ केवलज्ञान । सयोगिभवस्थ केवलज्ञान पूनः दो प्रकार का है: प्रथम समय सयोगिभवस्थ और अप्रथम समय सयोगिभवस्थ केवलज्ञान । इसी प्रकार अयोगिभवस्थ केवलज्ञान भी दो प्रकार का है। 'सिद्ध केवलज्ञान के दो भेद हैं : अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान और परम्परसिद्ध केवलज्ञान । अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान पन्द्रह प्रकार का है :१. तीर्थसिद्ध, २. अतीर्थसिद्ध, ३. तीर्थङ्करसिद्ध, ४. अतीर्थङ्कर'सिद्ध, ५. स्वयंबुद्धसिद्ध, ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध, ७. बुद्धबोधितसिद्ध, ८. स्त्रीलिंगसिद्ध, ६. पुरुषलिंगसिद्ध, १०. नपुसकलिंगसिद्ध, ११. स्वलिंगसिद्ध, १२. अन्यलिंगसिद्ध, १३. गृहलिंगसिद्ध, १४. एकसिद्ध, १५. अनेकसिद्ध । परम्पर-सिद्ध-केवलज्ञान अनेक प्रकार का है, जैसे ‘अप्रथम समयसिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतुःसमयसिद्ध, यावत् दशसमयसिद्ध, संख्येय-समयसिद्ध, असंख्येय-समयसिद्ध, अनन्त-समयसिद्ध प्रादि। सामान्यतः केवलज्ञान का चार दृष्टियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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