Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 166
________________ पैतालीस श्रागम १४६ ७. गोच्छक, ८-१०. प्रच्छादक त्रय, ११. रजोहरण तथा १२. मुखवस्त्रिका | प्राप्त सूचनाओं से विदित होता है कि पटल नामक वस्त्र का उपयोग भोजन - पात्र को आवृत्त करने के लिए तथा अपेक्षित होने पर गुह्यांग को ढकने के लिए भी होता था । स्थविर- कल्पी श्रमणों के लिए बारह उपकरण तो थे ही, उनके अतिरिक्त चोलपट्ट और मात्रक नामक दो उपकरण और थे । इस प्रकार उनके लिए चौदह उपकरणों का विधान था । साध्वी या श्रार्थिका के उपकररण जिन - कल्पी के लिए निर्देशित बारह उपकरण, स्थविर कल्पी के लिए निर्देशित दो अधिक उपकरणों में से एकमात्रक; इन तेरह उपकरणों के अतिरिक्त निम्नांकित बारह अन्य उपकरण साध्वी या आर्यिका के लिए निर्दिष्ट किये गये प्राप्त होते हैं । उनके लिए कुल पच्चीस उपकरण हो जाते हैं । वे इस प्रकार हैं : १४. कमढग, १५. उग्गहणंतंग (गुह्य अंग की रक्षा के लिए नाव की आकृति की तरह), १६. पट्टक ( उग्गहणंतग को दोनों ओर से ढकने वाला जांघिये की प्राकृति की तरह), १७. श्रद्धोरुग ( उग्गहत और पट्टक के ऊपर पहने जाने वाला ), १८. चलनिका ( बिना सिला हुआ घुटनों तक पहने जाने वाला । बांस पर खेल करने वाले भी पहनते थे ), १६. प्रभितर नियंसणी ( यह प्राधी जांघों तक लटका रहता है । वस्त्र बदलते समय लोग साध्वियों का उपहास नहीं करते । ), २०. बहिनियंसणी ( यह घुटनों तक लटका रहता है और इसे डोरी से कटि में बांधा जाता है ।), २१. कंचुक ( वक्षस्थल को ढकने वाला वस्त्र), २२. उक्कच्छिय ( यह कंचुक के समान होता है । ), २३. वेकच्छिय ( इससे कंचुक और उक्कच्छिय दोनों ढंक जाते हैं ।), २४. संघाटी (ये चार होती थीं - एक प्रतिश्रय में, दूसरी व तीसरी भिक्षान्नादि के लिए बाहर जाते समय और चौथी समवसरण में पहनी जाती थीं), २५. खन्धकरणी (चार हाथ लम्बा वस्त्र जो वायु आदि की रक्षा करने के लिए पहना जाता था । रूपवती साध्वियों को कुब्जा जैसी दिखाने के लिए भी इसका उपयोग करते थे ।) १ इन १. नियुक्ति ६७४ - ७७; भाष्य ३१३ - ३२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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