________________
पंतालीस पागम
२४१
श्रमण को कामराग या विषय-वासना से बचते रहने का उपदेश दिया गया है । उस सन्दर्भ में रथनेमि और राजीमती का प्रसंग भी संक्षेप में संकेतित है । यह अध्ययन उत्तराध्ययन के बाईसवें 'रथनेमि' अध्य-यन के बहुत निकट है। उत्तराध्ययन में रथनेमि प्रौर राजीमती का इतिवृत्त अपेक्षाकृत विस्तार से वर्णित है, पर, दोनों की मूल ध्वनि एक ही है।
चतुर्थ अध्ययन का शीर्षक 'षड्जीवनिकाय' है। इसमें षट्कायिक जीवों का संक्षेप में वर्णन करने के उपरान्त उनकी हिंसा के प्रत्याख्यान का प्रतिपादन है। इससे संलग्न प्रथम अहिंसा महाव्रत का विवेचन है। तदनन्तर पांच महाव्रतों का वर्णन है । प्रारम्भ-समारम्भ से पाप-बन्ध का प्रतिपादन करते हुए उससे निवृत्त होने का सुन्दर चित्रण है। यह अध्ययन प्राचारांग सूत्र के द्वितीय श्र तस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन के उत्तराद्ध से तुलनीय है। इस अध्ययन के पूर्व भाग में भगवान महावीर का जीवन-वृत्त विस्तार से उल्लिखित है तथा उत्तर भाग में महावीर द्वारा गौतम आदि निर्ग्रन्थों को उपदिष्ट किये गये पांच महाव्रतों तथा पृथ्वीकाय प्रभृति षड्-जीवनिकाय का विश्लेषण है। दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन की सामग्री का संकलन आचारांग के इसी अध्ययन से हुआ हो, ऐसा सम्भाव्य प्रतीत होता है।
पंचम अध्ययन का शीर्षक 'पिण्डैषणा' है। इसमें श्रमण की भिक्षा-चर्या के सन्दर्भ में सभी पहलुओं से बड़ा सुन्दर प्रकाश डाला गया है । भिक्षा के लिये किस प्रकार जाना, नहीं जाना, किस-किस स्थिति में भिक्षा लेना, किस-किस में नहीं लेना; इत्यादि का समीचीन विशद रूप में विवेचन किया गया है । इस अध्ययन की विषय-वस्तु प्राचारांग के द्वितीय श्रत-स्कन्ध के प्रथम अध्ययन से प्राकलित प्रतीत होती है। उसकी संज्ञा भी 'पिण्डषणा' ही है।
सातवें अध्ययन का शीर्षक 'वाक्य-शुद्धि' है। इसमें श्रमण के द्वारा किस प्रकार की भाषा प्रयोज्य है, किस प्रकार की अयोज्य; इस वर्णन के साथ संयमी के विनय और पवित्रता-पूर्ण प्राचार पर प्रकाश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org