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जैनागम दिग्दर्शन
स्वीकार कर उसकी कठिन अाराधना करता है। इस पागम का यही कथानक बौद्ध-परम्परा में लगभग इसी रूप में चचित है।
३. जीवाजीवाभिगम उपांग के नाम से ही स्पष्ट है, इसमें जीव, अजीव, उनके भेद, प्रभेद आदि का विस्तृत वर्णन है। संक्षेप में इसे जीवाभिगम भी कहा जाता है। परम्परा से ऐसा माना जाता है कि कभी इसमें बीस विभाग थे, परन्तु, वर्तमान में जो संस्करण प्राप्त है, उसमें केवल नौ प्रतिपत्तियाँ' (प्रकरण) मिलती हैं, जो २७२ सूत्रों में विभक्त हैं । हो सकता है, वे बीस विभाग या उनका महत्वपूर्ण भाग या लुप्त हो जाने से बचा हुप्रा भाग इन नौ प्रतिपत्तियों में विभक्त कर संकलन की दृष्टि से नये रूप में प्रस्तुत कर दिया गया हो। ये सब अनुमान हैं, जिनसे अधिक वितर्कणा करने के साधन आज उपलब्ध नहीं हैं।
गणधर गौतम के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर की शृखला में इस ग्रन्थ में रूपी, अरूपी, सिद्ध, संसारी, स्त्री, पुरुष व नपुंसक वेद, सातों नरकों में प्रतर, तिर्यंच, भुवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क देव, जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, उत्तर कुरु, नीलवन्तादि द्रह, धातकी खण्ड, कालोदधि, मानुषोत्तर पर्वत, मनुष्य लोक, अन्यान्य द्वीप-समुद्र आदि का वर्णन है। कहीं-कहीं वर्णनों का विस्तार हया है। प्रसंगोपात्ततया इसमें लोकोत्सव, यान, अलंकार, उद्यान, वापिका, सरोवर, भवन, सिंहासन, मिष्ठान्न, मदिरा, धातु आदि की भी चर्चा पाई है। प्राचीन भारत के सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों के अध्ययन की दृष्टि से इसका महत्व है। वर्शन - पक्ष .
जीवाजीवाभिगम आगम का दर्शन पक्ष इतना भर है कि वहाँ जीव और अजीव तत्त्व को नाना भेद-प्रभेदों से परिलक्षित किया गया है। प्रथम प्रतिपत्ति में कहा गया है, संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं—त्रस और स्थावर । स्थावर जीव तीन प्रकार के होते हैं—पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय । बादर वनस्पतिकाय बारह होते
१. ज्ञान, निश्चिति, अवाप्ति ।
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