Book Title: Jain evam Bauddh Yog
Author(s): Sudha Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 11
________________ IIL . प्रस्तत कति भी योग साहित्य परम्परा में एक कड़ी है, जो जैन एवं बौद्ध योग-साधना के तुलनात्मक स्वरूप को स्पष्ट कर सकेगी-ऐसा मेरा विश्वास है। जैन एवं बौद्ध योग पर अब तक स्वतंत्र रूप से शोध कार्य हुए हैं तथा पुस्तकों का प्रणयन भी हुआ है, किन्तु दोनों परम्पराओं का अब तक तुलनात्मक अध्ययन नहीं हुआ था, इसी तथ्य को ध्यान में रख कर मैंने जैन एवं बौद्ध योग के तुलनात्मक अध्ययन का असफल प्रयास किया है। अपनी अल्पज्ञ बुद्धि से योग सम्बन्धी गम्भीर विषय को प्रस्तुत करने का प्रयास तभी सार्थक होगा जब यह पुस्तक सुधी पाठकों व जिज्ञासुओं की पिपासा को शान्त कर सकेगी। प्रस्तुत पुस्तक आठ अध्यायों में विभक्त है प्रथम अध्याय के रूप में प्राचीन भारतीय योग परम्परा-एक अवलोकन' को लिया गया है। द्वितीय अध्याय के अन्तर्गत 'योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध' धर्म-दर्शन के विशेष परिप्रेक्ष्य में विषय पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय अध्याय में 'जैन एवं बौद्ध योग के प्रमुख साहित्य' की चर्चा की गयी है। चतुर्थ अध्याय 'जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार' के रूप में विश्लेषित किया गया है। पंचम अध्याय में 'योग-साधना के आचार पक्ष' को निरूपित किया गया है। षष्ठ अध्याय के अन्तर्गत 'जैन एवं बौद्ध ध्यान -पद्धति' को समाहित किया गया है। सप्तम अध्याय के प्रतिपाद्य विषय के रूप में 'आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ' ली गयी है। अष्टम अध्याय में ‘बन्धन और मोक्ष' को विषय बनाया गया है। अन्त में उपसंहार प्रस्तुत किया गया है। अपने इस कार्य की सम्पूर्णता के लिए सर्वप्रथम मैं तेरापंथ धर्मसंघ के गणाधिपति श्री तुलसी जी, आचार्यश्री महाप्रज्ञजी, युवाचार्य महाश्रमण जी एवं महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी के श्रीचरणों में अपनी भावभीनी वन्दना अर्ज करती हूँ, जिनके आशीर्वचनों से मैं अपने कार्य के प्रति सदा प्रेरित होती रही हूँ। तपागच्छाचार्य पूज्य आचार्यश्री राजयशसूरीश्वर जी म० सा० व पूज्या बेन म० सा० के श्रीचरणों में वन्दना अर्ज करती हूँ जिनकी विशेष कृपा मुझे प्राप्त है। अपने बाबोसा महाराज मुनिश्री हंसराजजी, काकोसा महाराज मुनिश्री गुलाबचन्द जी निर्मोही, मुनिश्री मधुकरजी, मुनिश्री महेन्द्र कुमार जी, मुनिश्री किशनलाल जी, साध्वीश्री कल्पलता जी आदि समस्त साधु-साध्वी वृंद, समणी कुसुमप्रज्ञा जी एवं शुभप्रज्ञा जी के प्रति मैं कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ जिनलोगों से किसी न किसी रूप में अपने लेखन कार्य में मुझे सहायता मिलती रही है। प्रस्तुत पुस्तक के प्रणयन में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में जिन विद्वानों व महानुभावों का सहयोग रहा है, उनके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ । इस सन्दर्भ में सर्वप्रथम जैनविद्या के मनीषी श्रद्धेय प्रो० सागरमल जी जैन (पूर्व निदेशक एवं वर्तमान सचिव, पार्श्वनाथ विद्यापीठ) जिनके निर्देशन में मैं विगत पाँच वर्षों से कार्य कर रही हूँ, की सदा ऋणी रहूँगी, जिन्होंने प्रस्तुत कृति को देखा और इसके प्रकाशन की स्वीकृति दी। प्रो० भागचन्द्र जैन (पूर्व निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ) के प्रति भी अपना आभार प्रकट करती हूँ जिन्होंने सदा मुझे अध्ययन एवं लेखन कार्य के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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