Book Title: Jain evam Bauddh Yog
Author(s): Sudha Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 9
________________ स्वतः भारतीय साधना-पद्धति की मुख्य दो धाराएँ हैं- श्रमण और ब्राह्मण । श्रमण परम्परा में जैन एवं बौद्ध परम्परायें आती हैं। ब्राह्मण परम्परा में- वेद, ईश्वरादि में विश्वास करनेवाले आते हैं। ब्राह्मण परम्परा के विचार भी अध्यात्म की अभिमुखता लिए हुए है, फिर भी पद्धतियों की अपनी स्वतन्त्रता तो होती ही है। सम्पूर्ण भारतीय दर्शन में चारित्र को प्रधानता दी गयी है। बिना चारित्र के केवल दर्शन का उतना महत्त्व नहीं होता है, जितना कि होना चाहिए। आचरण सम्यक् होता है तो दर्शन भी सम्यक् होता है और दर्शन सम्यक् होता है तो आचरण को भी सम्यक् होने की प्रेरणा मिलती है। जैन दर्शन ने जिस विचार और साधना-पद्धति का निरूपण किया, वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र की त्रिपुटी है। यही कारण है कि जैन साधना-पद्धति 'मोक्षमार्ग' के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसी प्रकार बौद्ध साधना-पद्धति को विशुद्ध-मार्ग के रूप में निरूपित किया गया। किन्तु कोई भी साधना-पद्धति, चाहे वह किसी भी नाम से पहचानी गई हो, उसका मूल ध्येय चित्त की विशुद्धि, कषाय पर विजय और आत्मा के परम स्वरूप को प्राप्त करना है। __ अष्टाङ्गयोग का जो व्यवस्थित रूप बना उसमें महर्षि पतञ्जलि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ब्राह्मणिक योग का विकास महर्षि पतञ्जलि से आरम्भ होता है। इसका अर्थ यह नहीं कि महर्षि पतञ्जलि योग के प्रवर्तक हैं, बल्कि उन्होंने योगमार्ग को व्यवस्थित कर अपने ग्रन्थ में उसकी विस्तृत व्याख्या की है। योग का पक्ष महर्षि पतञ्जलि से पूर्व भी था,तभी तो उन्होंने प्रथम सूत्र में 'अथ योगानुशासनम्' से उसकी व्यवस्था की चर्चा की है और यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि को विभाजित कर साधना का विकास-क्रम बताया है। यम से धारणा तक का सारा उपक्रम ध्यान की उपलब्धि के लिए है। धारणा की सघनता ध्यान और ध्यान की सघनता ही समाधि बनती है। ध्यान अथवा समाधि की साधना सभी परम्पराओं में समान रूप से प्रतिष्ठित है। वस्तुत: देखा जाये तो जिस चीज की उपयोगिता बढ़ जाती है उसकी संख्या में भी वृद्धि हो जाती है। लक्ष्य एक होने पर भी मार्ग अलग-अलग बन जाते हैं और उनके अलग-अलग निर्माता-संस्कर्ता हो जाते हैं। इसी प्रकार प्राचीनकाल से अब तक ध्यान भी बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। जिस दिन से मनुष्य ने ध्यान करना सीखा, उसे कुछ मिला। उसे महसूस हुआ कि ध्यान भी उपयोगी है, मूल्यवान् है। जब मूल्य होता है तो उसके साथ उसकी अर्थवत्ता भी बढ़ जाती है। जब कभी भी ध्यान प्रचलन में आया होगा तो उसकी एक ही शाखा रही होगी। किन्तु समय परिवर्तन के साथ-साथ उसकी अनेक शाखाएँ बनती जा रही हैं। फलत: आज सैकड़ों साधना-पद्धतियाँ चल रही हैं। सही अर्थों में देखा जाये तो सभी साधना-पद्धतियाँ चाहे वह वैदिक साधना-पद्धत्ति हो या जैन साधना-पद्धत्ति या फिर बौद्ध साधना-पद्धत्ति हो, सभी इसी साध्य को पोषित करती हैं कि साधक अपनी संसाराभिमुख चित्त-वृत्तियों को रोककर अपनी साधना को साध्य-सिद्धि के योग्य बनाये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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