Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 40
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-182 . जैन - तत्त्वमीमांसा -34 अनन्त है। चूंकि आकाश लोक और अलोक- दोनों में है, इसलिए वह अनन्त प्रदेशी है। संख्या की दृष्टि से आकाश को भी एक और अखण्ड द्रव्य माना गया है। उसके देश-प्रदेश आदि की कल्पना भी केवल वैचारिक-स्तर तक ही सम्भव है। वस्तुतः, आकाश में किसी प्रकार का विभाजन कर पाना सम्भव नहीं है, यही कारण है कि उसे अखण्ड द्रव्य कहा जाता है। जैन आचार्यों की अवधारणा है कि जिन्हें हम सामान्यतया ठोस पिण्ड समझते हैं, उनमें भी आकाश अर्थात् रिक्त स्थान होता है। एक पुद्गल-परमाणु में भी दूसरे अनन्त पुद्गल-परमाणुओं को अपने में समाविष्ट करने की शक्ति तभी सम्भव हो सकती है, जबकि उनमें विपुल मात्रा में रिक्त स्थान या आकाश हो, अतः मूर्त द्रव्यों में भी आकाश तो निहित ही रहता है। लकड़ी में हम जब कील ठोंकते हैं, तो वह वस्तुतः उसमें निहित रिक्त स्थान में ही समाहित होती है। इसका तात्पर्य यह है कि उसमें भी आकाश है। परम्परागत उदाहरण के रूप में यह कहा जाता है कि दूध या जल के भरे हुए ग्लास में यदि धीरे-धीरे शकर या नमक डाला जाय, तो वह उसमें समाविष्ट हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि दूध या जल से भरे हुए ग्लास में भी रिक्त स्थान अर्थात् आकाश था। वैज्ञानिकों ने भी यह मान लिया है कि प्रत्येक परमाणु में पर्याप्त रूप से रिक्त स्थान होता है, अतः आकाश को लोकालोकव्यापी एक और अखण्ड द्रव्य मानने में कोई बाधा नहीं आती है। पुद्गल-द्रव्य पुद्गल को भी अस्तिकाय-द्रव्य माना गया है। यह मूर्त और अचेतन द्रव्य है। पुद्गल का लक्षण शब्द, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि माना जाता है। जैन- आचार्यों ने हल्कापन, भारीपन, प्रकाश, अंधकार, छाया, आतप आदि को भी पुद्गल का लक्षण माना है। जहाँ धर्म, अधर्म और आकाश एक द्रव्य माने गये हैं, वहाँ पुद्गल अनेक द्रव्य हैं। जैन-आचार्यों ने प्रत्येक परमाणु को एक स्वतन्त्र द्रव्य इकाई माना है। वस्तुतः, पुद्गल-द्रव्य समस्त दृश्य-जगत् का मूलभूत घटक हैं। यह दृश्य-जगत् पुद्गल-द्रव्य के ही विभिन्न संयोगों का विस्तार है। अनेक पुद्गल-परमाणु मिलकर स्कंध की रचना करते हैं और इन

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