Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 88
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-230 जैन-तत्त्वमीमांसा -82 आत्मा के भेद ___जैन-दर्शन अनेक आत्माओं की सत्ता को स्वीकार करता है। इतना ही नहीं, वह प्रत्येक आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर उसके भेद करता है। जैन आगमों में आत्मा के विभिन्न पक्षों की अपेक्षा से आत्मा के आठ भेद किये गये हैं (भगवतीसूत्र 12/10/467)1. द्रव्यात्मा-आत्मा का तात्त्विक-स्वरूप। 2. कषायात्मा-क्रोध, मान, माया आदि कषायों या मनोवेगों से युक्त चेतना की अवस्था। 3. योगात्मा-शरीर से युक्त होने पर चेतना की कायिक, वाचिक और मानसिक-क्रियाओं की अवस्था / 4. उपयोगात्मा-आत्मा की ज्ञानात्मक और अनुभूत्यात्मक-शक्तियाँ / यह आत्मा का चेतनात्मक-व्यापार है। . 5. ज्ञानात्मा- चेतना की चिन्तन की शक्ति / 6. दर्शनात्मा- चेतना की अनुभूत्यात्मक-शक्ति / 7. चरित्रात्मा- चेतना की संकल्पात्मक-शक्ति। 8. वीर्यात्मा- चेतना की क्रियात्मक-शक्ति। उपर्युक्त आठ प्रकारों में द्रव्यात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा और दर्शनात्माये चार तात्त्विक-आत्मा के स्वरूप के ही द्योतक हैं, शेष चार कषायात्मा, योगात्मा, चरित्रात्मा और वीर्यात्मा-चारों आत्मा के अनुभवाधारित स्वरूप के निर्देशक हैं। तात्त्विक-आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से नित्य होती है, यद्यपि उसमें ज्ञानादि की पर्यायें होती रहती हैं। अनुभवाधारित आत्मा की शरीर से युक्त अवस्था है। यह परिवर्तनशील एवं विकारयुक्त होती है। आत्मा के बंधन का प्रश्न भी इसी अनुभवाधारित आत्मा से संबंधित है। विभिन्न दर्शनों में आत्मा- सिद्धांत के संदर्भ में जो पारस्परिक-विरोध दिखाई देता है, वह आत्मा के इन दो पक्षों में किसी पक्ष-विशेष पर बल देने के कारण होता है। भारतीय-परम्परा में बौद्धदर्शन ने आत्मा के अनुभवाधारित परिवर्तनशील पक्ष पर अधिक बल दिया, जबकि सांख्य और शांकर–वेदान्त ने आत्मा के तात्त्विक-स्वरूप पर ही अपनी दृष्टि केन्द्रित की। जैन-दर्शन

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