Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 124
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-266 जैन- तत्त्वमीमांसा-118 (आत्मा), धर्म, अधर्म, आकाश व पुद्गल- ये पाँच अस्तिकाय कहे जाते हैं। इन्हें अस्तिकाय कहने का तात्पर्य यह है कि ये प्रसारित हैं। दूसरे शब्दों में, जिसका आकाश में विस्तार होता है, वह अस्तिकाय कहलाता है। षड्द्रव्यों में मात्र काल को अनस्तिकाय कहा गया है, क्योंकि इसका प्रसार बहुआयामी न होकर एकरेखीय है। यहाँ हम सर्वप्रथम तो यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि षड्द्रव्यों की जो अवधारणा है, वह किस सीमा तक आधुनिक विज्ञान के साथ संगति रखती है। षड्द्रव्यों में सर्वप्रथम हम जीव के सन्दर्भ में विचार करेंगे। चाहे विज्ञान आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार न करता हो, किन्तु वह जीवन के अस्तित्व से इंकार भी नहीं करता है, क्योंकि जीवन की उपस्थिति एक अनुभूत तथ्य है। चाहे विज्ञान एक अमर आत्मा की कल्पना को स्वीकार नहीं करे, लेकिन वह जीवन एवं उसके विविध रूपों से इंकार नहीं कर सकता है। जीव-विज्ञान का आधार ही जीवन के अस्तित्व की स्वीकृति पर अवस्थित है। मात्र इतना ही नहीं, अब वैज्ञानिकों ने अतीन्द्रिय-ज्ञान तथा पुनर्जन्म के सन्दर्भ में भी अपनी शोध-यात्रा प्रारम्भ कर दी है। विचार-सम्प्रेषण या टेलीपैथी का सिद्धान्त अब वैज्ञानिकों की रुचि का विषय बनता जा रहा है और इस सम्बन्ध में हुई खोजों के परिणाम अतीन्द्रिय-ज्ञान की सम्भावना को पुष्ट करते हैं। इसी प्रकार, पुनर्जन्म की अवधारणा के सन्दर्भ में भी अनेक खोजें हुई हैं। अब अनेक ऐसे तथ्य प्रकाश में आये हैं, जिनकी व्याख्याएं पुनर्जन्म एवं अतीन्द्रिय ज्ञान-शक्ति को स्वीकार किये बिना सम्भव नहीं है। अब विज्ञान जीवन-धारा की निरन्तरता और उसकी अतीन्द्रिय शक्तियों से अपरिचित नहीं है, चाहे अभी वह उनकी वैज्ञानिक-व्याख्याएं प्रस्तुत न कर पाया हो। मात्र इतना ही नहीं, अनेक प्राणियों में मानव की अपेक्षा भी अनेक क्षेत्रों में इतनी अधिक ऐन्द्रिकज्ञान- सामर्थ्य होती है, जिस पर सामान्य बुद्धि विश्वास नहीं करती है, किन्तु उसे अब आधुनिक विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है। अतः, इस विश्व में जीवन का अस्तित्व है और वह जीवन अनन्त शक्तियों का पुंज है- इस तथ्य से अब वैज्ञानिकों का विरोध नहीं है। जहाँ तक भौतिक-तत्त्व के अस्तित्व एवं स्वरूप का प्रश्न है,

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