Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 137
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-279 जैन-तत्त्वमीमांसा-131 13. ईर्यापथिकी-क्रिया- अप्रमत्त, विवेकी एवं संयमी व्यक्ति की गमनागमन _ एवं आहार-विहार की क्रिया। 'आसव' श्रमणपरम्परा का सामान्य शब्द था। बौद्धपरम्परा में आस्रव शब्द की व्याया यह है कि जो मदिरा (आसव) के समान ज्ञान का विपर्यय करे, वह आस्रव है। दूसरे, जिससे संसाररूपी दु:ख का प्रसव होता है, वह आस्रव - जैनदर्शन में आस्रव को संसार (भव) एवं बन्धन का कारण माना गया है। बौद्धदर्शन में आस्रव को भव का हेतु कहा गया है। दोनों दर्शन अर्हतों को क्षीणास्रव कहते हैं। बौद्धविचारणा में आस्रव तीन माने गए हैं- (1) काम, (2) भव और (3) अविद्या, लेकिन अभिधर्म में दृष्टि को भी आस्रव कहा गया है। अविद्या और मिथ्यात्व समानार्थी हैं ही। काम को कषाय के अर्थ में लिया जा सकता है और भव को पुनर्जन्म के अर्थ में। धम्मपद में प्रमाद को आस्रव का कारण कहा गया है। बुद्ध कहते हैं- जो कर्तव्य को छोडता है और अकर्तव्य को करता है, ऐसे मलयुक्त प्रमादियों के आस्रव बढते हैं। इस प्रकार, जैनविचारणा के समान बौद्ध-विचारणा में भी प्रमाद आस्रव का कारण है। ___ बौद्ध और जैन-विचारणाओं में इस अर्थ में भी आस्रव के विचार के सम्बन्ध में मतैक्य है कि आस्रव अविद्या (मिथ्यात्व) के कारण होता है, लेकिन यह अविद्या या मिथ्यात्व भी अकारण नहीं, वरन् आस्रवप्रसूत है। जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीजकी परम्परा चलती है, वैसे ही अविद्या (मिथ्यात्व) से आस्रव और आस्रव से अविद्या (मिथ्यात्व) की परम्परा परस्पर सापेक्ष रूप में चलती रहती है। बुद्ध ने जहाँ अविद्या को आस्रव का कारण माना, वहाँ यह भी बताया कि आस्रवों के समुदय से अविद्या का समुदय होता है। एक के अनुसार, आस्रव चित्त-मल हैं, दूसरे के अनुसार, वे आत्म-मल हैं, लेकिन इस आत्मवाद सम्बन्धी दार्शनिक-भेद के होते हुए भी दोनों का साधना-मार्ग आस्रव-क्षय के निमित्त ही है। दोनों की दृष्टि से आस्रवक्षय ही निर्वाण-प्राप्ति का प्रथम सोपान है। बुद्ध कहते हैं- "भिक्षुओं! संस्कार, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, अविद्या आदि सभी अनित्य, संस्कृत और किसी कारण से उत्पन्न होने वाले हैं। भिक्षुओं! इसे भी जान लेने और देख लेने से आस्रवों का क्षय होता है।"

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