Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 135
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-277 जैन-तत्त्वमीमांसा-129 14. स्पर्शन-क्रिया- स्पर्श सम्बन्धी कि या एवं तज्जनित राग-द्वेषादि भाव। इसे पृष्टिजा-क्रिया भी कहते हैं। 15. प्रातीत्यकी-क्रिया- जड पदार्थ एवं चेतन वस्तुओं के बाह्य-संयोग या आश्रय से उत्पन्न रागादि भाव एवं तज्जनित क्रिया। 16. सामन्त क्रिया- स्वयं के जड पदार्थ की भौतिक-सम्पदा तथा चेतन प्राणिज- सम्पदा; जैसे पत्नियाँ, दास, दासी अथवा पशु, पक्षी इत्यादि को देखकर लोगों के द्वारा की हुई प्रशंसा से हर्षित होना। दूसरे शब्दों में, लोगों के द्वारा स्वप्रशंसा की अपेक्षा करना। सामन्तवाद का मूल आधार यही है। 17. स्वहस्तिकी-क्रिया- स्वयं के द्वारा दूसरे जीवों को त्रास या कष्ट देने की कि या। इसके दो भेद हैं- 1.जीव-स्वहस्तिकी, जैसे-चाँटा मारना, 2. अजीव-स्वहस्तिकी, जैसे-डण्डे से मारना। 18. नैसृष्टिकी-क्रिया- किसी को फेंककर मारना। इसके दो भेद हैं- 1. जीव-निसर्ग-क्रिया; जैसे-किसी प्राणी को पकडकर फेंक देने की क्रिया, 2. अजीव-निसर्ग- क्रिया; जैसे-बाण आदि मारना। 19. आज्ञापनिका-क्रिया- दूसरे को आज्ञा देकर कराई जाने वाली क्रिया या पापकर्म। 20. वैदारिणी-क्रिया-विदारण करने या फाडने से उत्पन्न होने वाली क्रिया। कुछ विचारकों के अनुसार, दो व्यक्तियों या समुदायों में विभेद करा देना या स्वयं के स्वार्थ के लिए दो पक्षों (क्रेता-विक्रेता) को गलत सलाह देकर फूट डालना आदि। 21. अनाभोग-क्रिया- अविवेकपूर्वक जीवन-व्यवहार का सम्पादन करना। 22. अनाकांक्षा-क्रिया- स्वहित एवं परहित का ध्यान नहीं रखकर क्रिया करना। 23. प्रायोगिकी-क्रिया- मन से अशुभ विचार, वाणी से अशुभ सम्भाषण एवं शरीर से अशुभ कर्म करके मन, वाणी और शरीर-शक्ति का अनुचित रूप में उपयोग करना। 24. सामुदायिक-क्रिया- समूह रूप में इकट्ठे होकर अशुभ या अनुचित क्रियाओं का करना; जैसे-सामूहिक वेश्या-नृत्य करवाना। लोगों को

Loading...

Page Navigation
1 ... 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152