Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 133
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-275 जैन- तत्त्वमीमांसा -127 हैं। ये प्रवृत्तियाँ या कि याएँ दो प्रकार की होती हैं, शुभ प्रवृत्तियाँ पुण्य-कर्म का आस्रव हैं और अशुभ प्रवृत्तियाँ पाप-कर्म का आस्रव हैं। उन सभी मानसिक एवं कायिक-प्रवृत्तियों का, जो आस्रव कही जाती हैं, विस्तृत विवेचन यहाँ सम्भव नहीं है। जैनागमों में इनका वर्गीकरण अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार से मिलता है। यहाँ तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर एक वर्गीकरण प्रस्तुत कर देना ही पर्याप्त होगा। - तत्त्वार्थसूत्र में आस्रव दो प्रकार का माना गया है- (1) ईर्यापथिक और (2) साम्परायिक। जैन-दर्शन गीता के समान यह स्वीकार करता है कि जब तक जीवन है, तब तक शरीर से निष्क्रिय नहीं रहा जा सकता। मानसिकवृत्ति के साथ ही साथ सहज शारीरिक एवं वाचिक-क्रियाएँ भी चलती रहती हैं और क्रिया के फलस्वरूप कर्मास्रव भी होता रहता है, लेकिन जो व्यक्ति कलुषित मानसिक-वृत्तियों (कषायों) के ऊपर उठ जाता है, उसकी और सामान्य व्यक्तियों की क्रियाओं के द्वारा होने वाले आस्रव में अन्तर तो अवश्य ही मानना होगा। कषायवृत्ति (दूषित मनोवृत्ति) से ऊपर उठे व्यक्ति की क्रियाओं के द्वारा जो आस्रव होता है, उसे जैन-परिभाषा में ईर्यापथिक-आस्रव कहते हैं। जिस प्रकार चलते हुए रास्ते की धूल का सूखा कण पहले क्षण में सूखे वस्त्र पर लगता है, लेकिन गति के साथ ही दूसरे क्षण में विलग हो जाता है, उसी प्रकार; कषायवृत्ति से रहित क्रियाओं से पहले क्षण में आस्रव होता है और दूसरे क्षण में वह निर्जरित हो जाता है। ऐसी क्रिया आत्मा में कोई विभाग उत्पन्न नहीं करती, किन्तु जो क्रियाएँ कषायसहित होती हैं, उनसे साम्परायिक- आस्रव होता है। साम्परायिक-आस्रव आत्मा के स्वभाव का आवरण कर उसमें विभाव उत्पन्न करता है। तत्त्वार्थ में साम्परायिक-आस्रव का आधार 38 प्रकार की क्रियाएँ हैं1-5, हिंसा, असत्य-भाषण, चोरी, मैथुन, संग्रह (परिग्रह)-ये पाँच अवृत 6-9, क्रोध, मान, माया, लोभ-ये चार कषाय 10-14, पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन 15-38, चौबीस साम्परायिक-क्रियाएँकायिकी-क्रिया-शारीरिक हलन-चलन आदि क्रियाएँ कायिकी-क्रिया कही जाती हैं। यह तीन प्रकार की हैं- (अ) मिथ्यादृष्टिप्रमत्त जीव की

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