Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 143
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-285 जैन- तत्त्वमीमांसा-137 मन, वाणी और शरीर की अयोग्य प्रवृत्तियों का संयमन, सद्गुणों ग्रहण, कष्टसहिष्णुता और समत्व की साधना समाविष्ट है। जैन-दर्शन में संवर के साधक से यही अपेक्षा की गई है कि उसका प्रत्येक आचरण संयत एवं विवेकपूर्ण हो, चेतना सदैव जाग'त रहे, ताकि इन्द्रियों के विषय उसमें राग-द्वेष की प्रवृत्तियाँ पैदा न कर सकें। जब इन्द्रियाँ और मन अपने विषयों के सम्पर्क में आते हैं, तो आत्मा में विकार या वासना उत्पन्न होने की सम्भावना खडी होती है, अत: साधना-मार्ग के पथिक को सदैव जाग्रत रहते हुए विषय-सेवनरूप छिद्रों से आने वाले कर्मास्रव या विकार से अपनी रक्षा करनी है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को समेटकर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्मयोग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पापवृत्तियों से सुरक्षित रखे / मन, वाणी, शरीर और इन्द्रिय-व्यापारों का संयमन ही नैतिक-जीवन की साधना का लक्ष्य है। सच्चे साधक की व्याख्या करते हुए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जो सूत्र तथा उसके रहस्य को जानकर हाथ, पैर, वाणी तथा इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है (अर्थात् सन्मार्ग में विवेकपूर्वक प्रयत्नशील रहता है), अध्यात्मरस में ही जो मस्त रहता है और अपनी आत्मा को समाधि में लगाता है, वही सच्चा साधक है। 6. निर्जरा-तत्त्व __आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों का सम्बद्ध होना बंध है और आत्मा से कर्म-वर्गणाओं का अलग होना निर्जरा है। नवीन आने वाले कर्म-पुद्गलों को रोकना (संवर) है, परन्तु मात्र संवर से निर्वाण की प्राप्ति संभव नहीं। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि किसी बड़े तालाब के जल-स्रोतों (पानी के आगमन के द्वार) को बन्द कर दिया जाए और उसके अन्दर रहे हुए जल को उलीचा जाए और ताप से सुखाया जाए, तो वह विस्तीर्ण तालाब भी सूख जाएगा। इस रूपक में आत्मा ही सरोवर है, कर्म पानी है, कर्म का आस्रव ही पानी का आगमन है। उस पानी के आगमन के द्वारों को निरुद्ध कर देना संवर है और पानी को उलीचना और सुखाना निर्जरा है। यह रूपक यह बताता है कि 'संवर से नए कर्मरूपी जल का आगमन (आस्रव) तो रुक जाता है, लेकिन पूर्व में बंधे हुए, सत्तारूप कर्मों का जल, जो आत्मारूपी तालाब में शेष है, उसे

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