Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 138
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-280 जैन- तत्त्वमीमांसा-132 4.बन्ध तत्व ___ जैसे जैन-परम्परा में राग, द्वेष और मोह बन्धन के मूलभूत कारण माने गए हैं, वैसे ही बौद्ध-परम्परा में लोभ (राग), द्वेष और मोह को बन्धन (कर्मों की उत्पत्ति) का कारण माना गया है। जो मूर्ख लोभ, द्वेष और मोह से प्रेरित होकर छोटा या बडा, जो भी कर्म करता है, उसे उसी को भोगना पडता है, न कि दूसरे का किया हुआ, इसलिए बुद्धिमान् भिक्षु को चाहिए कि लोभ, द्वेष और मोह का त्याग कर एवं विद्या का लाभ कर सारी दुर्गतियों से मुक्त हो। . इस प्रकार, जैन और बौद्ध-दोनों परम्पराओं में राग, द्वेष और मोहयही तीन बन्धन (संसार-परिभ्रमण) के कारण सिद्ध होते हैं। वैसे, मूलभूत आस्रव योग (क्रिया) है, लेकिन यह समग' क्रिया-व्यापार भी स्वत:प्रसूत नहीं है। उसके भी प्रेरक सूत्र हैं, जिन्हें आसव-द्वार या बन्धहेतु कहा गया है। समवायांग, ऋषिभाषित एवं तत्त्वार्थसूत्र में इनकी संख्या 5 मानी गई है-(1) मिथ्यात्व, (2) अविरति, (3) प्रमाद, (4) कषाय और (5) योग (क्रिया)। समयसार में इनमें से 4 का उल्लेख मिलता है, उसमें प्रमाद का उल्लेख नहीं है। उपर्युक्त पाँच प्रमुख आसंव-द्वार या बन्धहेतुओं को पुन: अनेक भेद-प्रभेदों में वर्गीकृत किया गया है। यहाँ केवल नाम-निर्देश करना पर्याप्त है। पाँच आस्रव-द्वारों या बन्ध-हेतुओं के अवान्तर-भेद इस प्रकार हैं 1. मिथ्यात्व- मिथ्यात्व अयथार्थ दृष्टिकोण है, जो पाँच प्रकार का है(1) एकान्त, (2) विपरीत, (3) विनय, (4) संशय और (5) अज्ञान। 2. अविरति- यह अमर्यादित एंव असंयमित जीवन-प्रणाली है। इसके भी पाँच भेद हैं- (1) हिंसा, (2) असत्य, (3) स्तेयवृत्ति, (4) मैथुन (कामवासना) और (5) परिग'ह (आसक्ति)। 3. प्रमाद- सामान्यतया, समय का अनुपयोग या दुरुपयोग प्रमाद है। लक्ष्योन्मुख प्रयास के स्थान पर लक्ष्य-विमुख प्रयास समय का दुरुपयोग है, जबकि प्रयास का अभाव अनुपयोग है। वस्तुत:, प्रमाद आत्म-चेतना का अभाव है। प्रमाद पाँच प्रकार का माना गया है (क) विकथा- जीवन के लक्ष्य (साध्य) और उसके साधना-मार्ग पर

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