Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 140
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-282 जैन-तत्त्वमीमांसा-134 . कारण राग और राग का कारण मोह है। मोह तथा राग (आसक्ति) परस्पर एक-दूसरे के कारण हैं, अत: राग, द्वेष और मोह-ये तीन ही जैन-परम्परा में बन्धन के मूल कारण हैं। इसमें से द्वेष को, जो राग (आसक्ति) जनित है, छोड देने पर शेष राग (आसक्ति) और मोह (अज्ञान)-ये दो कारण बचते हैं, जो अन्योन्याश्रित हैं। सांख्ययोग-दर्शन में बन्धन का कारण योगसूत्र में बन्धन या क्लेश के पाँच कारण माने गए हैं- 1. अविद्या, 2. अस्मिता (अहंकार), 3. राग (आसक्ति), 4. द्वेष और 5. अभिनिवेश (मृत्यु का भय)। इनमें भी अविद्या ही प्रमुख कारण है, क्योंकि शेष चारों अविद्या पर आधारित हैं। जैनदर्शन के राग, द्वेष और मोह (अविद्या) इसमें भी स्वीकृत हैं। न्याय-दर्शन में बन्धन का कारण न्याय-दर्शन में जैन-दर्शन के समान बन्धन के मूलभूत तीन कारण माने गए हैं- 1.राग, 2. द्वेष और 3. मोह। राग (आसक्ति) के भीतर काम, मत्सर, स्पृहा, तृष्णा, लोभ, माया तथा दम्भ का समावेश होता है तथा द्वेष में क्रोध, ईर्ष्या, असूया, द्रोह (हिंसा) तथा अमर्ष का। मोह (अज्ञान) में मिथ्याज्ञान, संशय, मान और प्रमाद होते हैं। राग और द्वेष मोह अथवा अज्ञान से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार, तुलनात्मक-दृष्टि से विचार किया जाए, तो सभी विचारणाओं में अविद्या (मोह) और राग-द्वेष ही बन्धन, दु:ख या क्लेश के कारण हैं / द्वेष भी राग के कारण होता है, अत: मूलत: आसक्ति (राग) और अविद्या (मोह) ही बन्धन के कारण हैं, जिनकी स्थिति परस्पर सापेक्ष-भाव से है। 5. संवर-तत्त्व यद्यपि यह सत्य है कि आत्मा के पूर्व कर्म-संस्कारों के कारण बन्धन की प्रकि या अविराम गति से चल रही है। पूर्व कर्म-संस्कार विपाक के अवसर पर आत्मा को प्रभावित करते हैं और उसके परिणामस्वरूप मानसिक एवं शारीरिक क्रिया-व्यापार होता है और उस कि या-व्यापार के कारण नवीन कर्मास्रव एवं कर्म-बन्ध होता है, अत: यह प्रश्न उपस्थित होता है कि बन्धन से

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