Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 139
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-281 जैन - तत्त्वमीमांसा -133 विचार नहीं करते हुए अनावश्यक चर्चाएँ करना। विकथाएँ चार प्रकार की हैं(1) राज्य-सम्बन्धी (2) भोजन-सम्बन्धी, (3) स्त्रियों के रूप-सौन्दर्यसम्बन्धी और (4) देश-सम्बन्धी। विकथा समय का दुरुपयोग है। (ख) कषाय- क्रोध, मान, माया और लोभ। इनकी उपस्थिति में आत्मचेतना कुण्ठित होती है, अत: ये भी प्रमाद हैं। (ग) राग- आसक्ति भी आत्म-चेतना को कुण्ठित करती है, इसलिए . प्रमाद कही जाती है। (घ) विषय- सेवन- पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन। (ङ) निद्रा- अधिक निद्रा लेना। निद्रा समय का अनुपयोग है। 4. कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार प्रमुख मनोदशाएँ, जो अपनी तीव्रता और मन्दता के आधार पर सोलह प्रकार की होती हैं, कषाय कही जाती हैं। इन कषायों के जनक हास्यादि नौ प्रकार के मनोभाव उपकषाय हैं। कषाय और उपकषाय मिलकर पच्चीस भेद होते हैं। 5. योग-जैन-शब्दावली में योग का अर्थ क्रिया है, जो तीन प्रकार की हैं- (1) मानसिक-क्रिया (मनोयोग), (2) वाचिक-क्रिया (वचनयोग), (3) शारीरिक-क्रिया (काययोग)। यदि हम बन्धन के प्रमुख कारणों को और संक्षेप में जानना चाहें, तो जैन-परम्परा में बन्धन के मूलभूत तीन कारण राग (आसक्ति), द्वेष और मोह माने गए हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में राग और द्वेष-इन दोनों को कर्म-बीज कहा गया है और उन दोनों का कारण मोह बताया गया है। यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं, फिर भी उनमें राग ही प्रमुख है। राग के कारण ही द्वेष होता है। जैन-कथानकों के अनुसार, इन्द्रभूति गौतम का महावीर के प्रति प्रशस्तराग भी उनके कैवल्य की उपलब्धि में बाधक रहा था। इस प्रकार, राग एवं मोह (अज्ञान) ही बन्धन के प्रमुख कारण हैं। आचार्य कुन्दकुन्द राग को प्रमुख कारण बताते हुए कहते हैं, आसक्त आत्मा ही कर्म-बन्ध करता है और अनासक्त मुक्त हो जाता है, यही जिन भगवान् का उपदेश है, इसलिए कर्मों में आसक्ति मत रखो, लेकिन यदि राग (आसक्ति) का कारण जानना चाहें, तो जैन-परम्परा के अनुसार मोह ही इसका कारण सिद्ध होता है, यद्यपि मोह और राग-द्वेष सापेक्ष रूप में एक-दूसरे के कारण बनते हैं। इस प्रकार, द्वेष का

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