Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 132
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-274 जैन-तत्त्वमीमांसा-126 तथ्य और हमें समझ लेना होगा, वह यह कि तीर्थकर या आप्त-पुरुष केवल हमारे बंधन व मुक्ति के सिद्धान्तों को प्रस्तुत करते हैं। वे मनुष्य की नैतिक-कमियों को इंगित करके वह मार्ग बताते हैं, जिससे नैतिक-कमजोरियों. पर या वासनामय जीवन पर विजय पायी जा सके। उनके उपदेशों का मुख्य संबंध व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास, सदाचार तथा सामाजिक-जीवन में शान्ति व सहअस्तित्व के मूल्यों पर बल देने के लिए होता है, अतः सर्वज्ञ के नाम पर कही जाने वाली सभी मान्यताएं सर्वज्ञप्रणीत हैं- ऐसा नहीं है। कालक्रम में ऐसी अनेक मान्यताएँ आयीं, जिन्हें बाद में सर्वज्ञप्रणीत कहा गया। जैन धर्म में खगोल व भूगोल की मान्यताएं भी किसी अंश में इसी प्रकार की हैं। पुनः, विज्ञान कभी अपनी अंतिमता का दावा नहीं करता है, अतः कल तक जो अवैज्ञानिक कहा जाता था, वह नवीन वैज्ञानिक-खोजों से सत्य सिद्ध हो सकता है। आज न तो विज्ञान से भयभीत होने की आवश्यकता है और न उसे नकारने की आवश्यकता है- विज्ञान और अध्यात्म के रिश्ते के सही मूल्यांकन की। आस्रव-तत्त्व ___जैन-दृष्टिकोण- आस्रव शब्द क्लेश या मल का बोधक है। क्लेश या मल ही कर्मवर्गणा के पुद्गलों को आत्मा के सम्पर्क में आने का कारण है, अत: जैन-तत्त्वज्ञान में आस्रव का रूढ अर्थ यह भी हुआ कि कर्मवर्गणाओं का आत्मा में आना आस्रव है। अपने मूल अर्थ में आस्रव उन कारकों की व्या'या करता है, जो कर्मवर्गणाओं को आत्मा की ओर लाते हैं और इस प्रकार आत्मा के बन्धन के कारण होते हैं। आस्रव के दो भेद हैं-(1) भावास्रव और (2) द्रव्यास्रव। आत्मा की विकारी-मनोदशा भावास्रव है और कर्मवर्गणाओं के आत्मा में आने की प्रक्रिया द्रव्यास्रव है। इस प्रकार, भावास्रव कारण है और द्रव्यास्रव कार्य या प्रकि या है। द्रव्यास्रव का कारण भावास्रव है, लेकिन यह भावात्मक-परिवर्तन भी अकारण नहीं है, वरन् पूर्वबद्ध कर्म के कारण होता है। इस प्रकार, पूर्व-बन्धन के कारण भावास्रव और भावास्रव के कारण द्रव्यास्र और द्रव्यास्रव से कर्म का बन्धन होता है। वैसे, सामान्य रूप में मानसिक, वाचिक एवं कायिक-प्रवृत्तियाँ ही आस्रव

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