Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 130
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-272 जैन - तत्त्वमीमांसा-124. आधुनिक खगोल-विज्ञान एवं जैन-आगमिक-मान्यताओं में स्पष्ट रूप से अन्तर देखा जाता है। सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण आदि की अवस्थिति-सम्बन्धी मान्यताओं को लेकर भी जैनधर्म-दर्शन व आधुनिक विज्ञान में मतैक्य नहीं है। जहाँ आधुनिक खगोल-विज्ञान के अनुसार चन्द्रमा पृथ्वी के अधिक निकट एवं सूर्य दूरी पर है, वहाँ जैन-ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को निकट व चन्द्रमा को दूर बताया गया है। जहाँ आधुनिक विज्ञान के अनुसार चन्द्रमा का आकार सूर्य की अपेक्षा छोटा बताया गया, वहाँ जैन-परम्परा में सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा को बृहत् आकार का माना गया है। इस प्रकार, अवधारणागत दृष्टि से कुछ निकटता होकर भी दोनों में भिन्नता ही अधिक देखी जाती है। जो स्थिति जैन-खगोल एवं आधुनिक खगोल विज्ञान-संबंधी मान्यताओं में मतभेद की है, वही स्थिति प्रायः जैन-भूगोल और आधुनिक-भूगोल की है। इस भूमण्डल पर मानव-जाति के अस्तित्व की दृष्टि से ढाई द्वीपों की कल्पना की गयी है- जम्बूद्वीप, धातकी-खण्ड और पुष्करार्द्ध / जैसा कि हमने पूर्व में बताया है कि जैन-मान्यता के अनुसार .मध्यलोक के मध्य में जम्बूद्वीप है, जो कि गोलाकार है, उसके आस-पास उससे द्विगुणित क्षेत्रफल वाला लवण-समुद्र है, फिर लवणसमुद्र से द्विगुणित क्षेत्रफल वाला वलयाकार धातकी खण्ड है। धातकी-खण्ड के आगे पुनः क्षीरसमुद्र है, जो क्षेत्रफल में जम्बूद्वीप से आठ गुणा बड़ा है, उसके आगे पुनः वलयाकार में पुष्कर-द्वीप है, जिसके आधे भाग में मनुष्यों का निवास है। इस प्रकार, एक-दूसरे से द्विगुणित क्षेत्रफल वाले असंख्य द्वीप-समुद्र वलयाकार में अवस्थित हैं। यदि हम जैन-भूगोल की अढ़ाई द्वीप की इस कल्पना को आधुनिक भूगोल की दृष्टि से समझने का प्रयत्न करें, तो हम कह सकते हैं कि आज भी स्थल रूप में एक से जुड़े हुए अफ्रीका, यूरोप व एशिया, जो किसी समय एक-दूसरे से सटे हुए थे, मिलकर जम्बूद्वीप की कल्पना को साकार करते हैं। ज्ञातव्य है कि किसी प्राचीन जमाने में पश्चिम में वर्तमान अफ्रीका और पूर्व में जावा, सुमात्रा एवं आस्ट्रेलिया आदि एशिया महाद्वीप से सटे हुए थे, जो गोलाकार महाद्वीप की रचना करते थे। यही गोलाकार महाद्वीप जम्बूद्वीप के नाम से जाना

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