Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 129
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-271 जैन-तत्त्वमीमांसा-123 में विचार किया है, अतः इस सम्बन्ध में अधिक विस्तार में न जाकर पाठकों को उसे आचार्यश्री की गुजराती भूमिका एवं हिन्दी व्याख्या में देख लेने की अनुशंसा करते हैं। खगोल-भूगोल सम्बन्धी जैन–अवधारणा का अन्य धर्मों की अवधारणाओं से एवं आधुनिक विज्ञान की अवधारणा से क्या सम्बन्ध है- यह एक विचारणीय प्रश्न है। इस सम्बन्ध में हमें दो प्रकार के परस्पर विरोधी दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। जहाँ विभिन्न धर्मों में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि को देव के रूप में चित्रित किया गया है, वहीं आधुनिक विज्ञान में वे अनन्ताकाश में बिखरे हुए भौतिक-पिण्ड ही हैं। धर्म उनमें देवत्व का आरोपण करता है, किन्तु विज्ञान उन्हें मात्र एक भौतिक संरचना मानता है। जैन-दृष्टि में इन दोनों अवधारणाओं का एक समन्वय देखा जाता है। जैन-विचारक यह मानते हैं कि जिन्हें हम सूर्य, चन्द्र आदि मानते हैं, वह उनके विमानों से निकलने वाला प्रकाश है। ये विमान सूर्य, चन्द्र आदि देवों के आवासीय-स्थल हैं, जिनमें उस नाम वाले देवगण निवास करते हैं। इस प्रकार, जैन-विचारकों ने सूर्य-विमान चन्द्र-विमान आदि को भौतिक-संरचना के रूप में स्वीकार किया है और उन विमानों में निवास करने वालों को देव बताया। इसका फलित यह है कि जैन-विचारक वैज्ञानिक-दृष्टि तो रखते थे, किन्तु परम्परागत धार्मिक मान्यताओं को भी ठुकराना नहीं चाहते थे, इसीलिए उन्होंने दोनों अवधारणाओं के बीच एक समन्वय करने का प्रयास किया है। - जैन-ज्योतिषशास्त्र की विशेषता है कि वह भी वैज्ञानिकों के समान इस ब्रह्माण्ड में असंख्य सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र व तारागणों का अस्तित्व मानता है। उनकी मान्यता है कि जंबूद्वीप में दो सूर्य और दो चन्द्रमा हैं, लवण-समुद्र में चार सूर्य व चार चन्द्रमा हैं। धातकी-खण्ड में आठ सूर्य व आठ चन्द्रमा हैं। इस प्रकार, प्रत्येक द्वीप व समुंद्र में सूर्य व चन्द्रमाओं की संख्या द्विगुणित होती जाती है। जहाँ तक आधुनिक खगोल-विज्ञान का प्रश्न है, वह अनेक सूर्य व चंद्र की अवधारणा को स्वीकार करता है, फिर भी सूर्य, चन्द्र आदि के क्रम एवं मार्ग, उनका आकार एवं उनकी पारस्परिक-दूरी आदि के सम्बन्ध में

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