Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 119
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-261 जैन-तत्त्वमीमांसा-113 एवं अण्डे आदि के सेवन से कौन-से रोगों की उत्पत्ति होती है आदि तथ्यों की प्रामाणिक-जानकारी आधुनिक वैज्ञानिक-खोजों के द्वारा ही सम्भव हुई है। आज वैज्ञानिकों और चिकित्साशास्त्रियों ने अपनी खोजों के माध्यम से मांसाहार के दोषों की जो विस्तृत विवेचनाएं की हैं, वे सब, जैन-आचारशास्त्र कितना वैज्ञानिक है- इसकी ही पुष्टि करते हैं। इसी प्रकार, पर्यावरण की शुद्धि के लिए जैन-परम्परा में वनस्पति, जल आदि के अनावश्यक दोहन पर जो प्रतिबन्ध लगाया गया है, वह आज कितना सार्थक है, यह बात आज हम बिना वैज्ञानिक-खोजों के नहीं समझ सकते। पर्यावरण के महत्त्व के लिए और उसे दूषित होने से बचाने के लिए जैन-आचारशास्त्र की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, इसकी पुष्टि आज वैज्ञानिक-खोजों के माध्यम से ही सम्भव हो सकी है। आज वैज्ञानिक-ज्ञान के परिणामस्वरूप हम धार्मिक आचार-सम्बन्धी अनेक मान्यताओं का सम्यक मूल्यांकन कर सकते हैं और इस प्रकार विज्ञान की खोज धर्म के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। जैन धर्म एवं दर्शन की जो बातें कल तक अवैज्ञानिक-सी लगती थीं, आज वैज्ञानिक-खोजों के फलस्वरूप सत्य सिद्ध हो रही हैं, अतः विज्ञान को धर्म व दर्शन का विरोधी न मानकर उसका सम्पूरक ही मानना होगा। आज जब हम जैन-तत्त्वमीमांसा, जैवविज्ञान और आचारशास्त्र की आधुनिक वैज्ञानिक-खोजों के परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करते हैं, तो हम यही पाते हैं कि विज्ञान ने जैन-अवधारणाओं की पष्टि ही की है। . वैज्ञानिक-खोजों के परिणामस्वरूप जो सर्वाधिक प्रश्न-चिह्न लगे हैं, वे जैनधर्म की खगोल व भूगोल-सम्बन्धी मान्यताओं पर हैं। यह सत्य है कि खगोल व भूगोल- सम्बन्धी जैन-अवधारणाएं आज की वैज्ञानिक-खोजों से भिन्न पड़ती हैं और आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में उनका समीकरण बैठा पाना भी कठिन है। यहाँ सबसे पहला प्रश्न यह है कि क्या जैन- खगोल व भूगोल सर्वज्ञप्रणीत है या सर्वज्ञ की वाणी है? इस सम्बन्ध में पर्याप्त विचार की आवश्यकता है। सर्वप्रथम तो हमें जान ले [ चाहिए कि जैन-खगोल व भूगोल संबंधी विवरण स्थानांग, समवायांग एवं भगवती को छोड़कर अन्य अंग-आगमों में कहीं भी उल्लेखित नहीं है।

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