Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 121
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-263 जैन- तत्त्वमीमांसा -115 स्थिति में सर्वज्ञ-प्रणीत नहीं माना जा सकता है। जो लोग खगोल-भूगोल सम्बन्धी वैज्ञानिक तथ्यों को केवल इसलिए स्वीकार करने से कतराते हैं कि इससे सर्वज्ञ की अवहेलना होगी, वे वस्तुतः जैन-आध्यात्मशास्त्र के रहस्यों से या तो अनभिज्ञ हैं, या उनकी अनुभूति से रहित है, क्योंकि हमें सर्वप्रथम तो यह स्मरण रखना होगा कि जो आत्म-द्रष्टा सर्वज्ञप्रणीत है ही नहीं, उसके अमान्य होने से सर्वज्ञ की सर्वज्ञता कैसे खण्डित हो सकती है? आचार्य कुन्दकुन्द ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि सर्वज्ञ आत्मा को जानता है- यही यथार्थ/ सत्य है। सर्वज्ञ बाह्य-जगत् को जानता है- यह केवल व्यवहार है। भगवतीसूत्र का यह कथन भी कि 'केवली सिय जाणइ सिय ण जाणइ'- इस सत्य को उद्घाटित करता है कि सर्वज्ञ आत्मद्रष्टा होता है। वस्तुतः, सर्वज्ञ का उपदेश भी आत्मानुभूति और आत्म-विशुद्धि के लिए होता है। जिन साधनों से हम शुद्धात्मा की अनुभूति कर सकें, आत्मशुद्धि यां आत्मविमुक्ति को उपलब्ध कर सकें, वही सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपाद्य है। .. यह सत्य है कि आगमों के रूप में हमारे पास जो कुछ उपलब्ध है, उसमें जिन- वचन भी संकलित हैं और यह भी सत्य है कि आगमों का और उनमें उपलब्ध सामग्री का जैनधर्म, प्राकृत-साहित्य और भारतीय-इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्व है, फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आगमों के नाम पर हमारे पास जो कुछ उपलब्ध है, उसमें पर्याप्त विस्मरण, परिवर्तन, परिवर्द्धन और प्रक्षेपण भी हुआ है, अतः इस तथ्य को स्वयं अन्तिम वाचनाकार देवर्द्धि ने भी स्वीकार किया है। अतः, आगम-वचनों में कितना अंश जिन-वचन हैं- इस सम्बन्ध में पर्याप्त समीक्षा, सतर्कता और सावधानी आवश्यक है। .. 'आज दो प्रकार की अतियाँ देखने में आती हैं- एक अति यह है कि चाहे पन्द्रहवीं शती के लेखक ने महावीर-गौतम के संवाद के रूप में किसी ग्रन्थ की रचना की हो, उसे भी बिना समीक्षा के जिन-वचन के रूप में मान्य किया जा रहा है और उसे ही चरम सत्य माना जाता है, दूसरी ओर, सम्पूर्ण आगम-साहित्य को अन्धविश्वास कहकर नकारा जा रहा है। आज आवश्यकता है नीर-क्षीर-बुद्धि से आगम-वचनों की समीक्षा करके

Loading...

Page Navigation
1 ... 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152