Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 99
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-241 जैन-तत्त्वमीमांसा-93 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग मुख्यतः शरीर की अपेक्षा से ही देखा जाता है। परवर्ती जैन-दार्शनिकों ने तो पुदगल शब्द का प्रयोग स्पष्टतः भौतिक-तत्त्व के लिए ही किया है और उसे ही दृश्य-जगत् का कारण माना है, क्योंकि जैन-दर्शन में पुद्गल ही ऐसा तत्त्व है, जिसे मूर्त या इन्द्रियों की अनुभूति का विषय कहा गया है। वस्तुतः, पुद्गल के उपर्युक्त गुण ही उसे हमारी इन्द्रियों की अनुभूति का विषय बनाते हैं। - यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैन-दर्शन में प्राणीय-शरीर, यहाँ तक कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति का शरीर-रूप दृश्य स्वरूप भी पुद्गल की ही निर्मित है। विश्व में जो कुछ भी मूर्त्तिमान या इन्द्रिय–अनुभूति का विषय है, वह सब पुद्गल का खेल है। इस सम्बन्ध में विशेष ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जैन-दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु- इन चारों को शरीर की अपेक्षा पुदगलरूप से मानने के कारण इनमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण- ये चारों गुण माने गये हैं, जबकि वैशेषिक आदि दर्शन मात्र पृथ्वी को ही उपर्युक्त चारों वर्षों से युक्त मानते हैं। वे जल को गन्धरहित त्रिगुण वाला, तेज को गन्ध और रसरहित मात्र द्विगुण वाला और वायु को मात्र एक स्पर्शगुणवाला मानते हैं। यहाँ एक विशेष तथ्य यह भी है कि जहाँ अन्य दार्शनिकों ने शब्द को आकाश का गुण माना है, वहाँ जैन-दार्शनिकों ने शब्द को पुद्गल का ही गुण माना है। उनके अनुसार, आकाश का गुण तो मात्र अवगाह अर्थात् स्थान देना है। - यह दृश्य-जगत् पुद्गल के ही विभिन्न संयोगों का विस्तार है, अनेक पुद्गल-परमाणु मिलकर स्कंध की रचना करते हैं और स्कंधों से ही मिलकर दृश्य-जगत् की सभी वस्तुएँ निर्मित होती हैं। नवीन स्कंधों के निर्माण और पूर्व निर्मित स्कन्धों के संगठन और विघटन की प्रक्रिया के माध्यम से ही दृश्य-जगत में परिवर्तन घटित होते हैं और विभिन्न वस्तुएँ और पदार्थ अस्तित्व में आते हैं। ___जैन-आचार्यों ने पुद्गल को स्कंध और परमाणु- इन दो रूपों में विवेचित किया है। विभिन्न परमाणुओं के संयोग से ही स्कंध बनता है, फिर भी इतना स्पष्ट है कि पुद्गल-द्रव्य का अंतिम घटक तो परमाणु ही है। उसमें स्वभाव से एक रस, एक वर्ण, एक गंध और शीत-उष्ण या

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