Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 59
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-201 जैन-तत्त्वमीमांसा-53 अर्थात् नित्य है। दूसरे शब्दों में, आत्मा तत्त्व-रूप से नित्य है, शाश्वत है। (2) अनित्यता- आत्मा पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। आत्मा के एक समय में जो पर्याय रहते हैं, वे दूसरे समय में नहीं रहते हैं। आत्मा की यह अनित्यता व्यावहारिक-दृष्टि से है, बद्धात्मा में पर्याय-परिवर्तन के कारण अनित्यत्व का गुण भी रहता है। (3) कूटस्थता- स्वलक्षण की दृष्टि से आत्मा कर्ता या भोक्ता अथवा परिणमनशील नहीं है। (4) परिणामीपन या कर्तृत्व- सभी बद्धात्माएँ कर्मों की कर्ता और भोक्ता हैं। यह एक आकस्मिक गुण है, जो कर्म-पुद्गलों के संयोग से उत्पन्न होता है। (5-6) सूक्ष्मता तथा विभुता- आत्मा संकोची एवं विकासशील है। आत्म-प्रदेश घनीभूत होकर इतने सूक्ष्म हो जाते हैं कि आगमिक-दृष्टि से एक सूचिकाग्र भाग पर असंख्य आत्मा सशरीर निवास करती हैं। तलवार की सूक्ष्म तीक्ष्ण धार भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों के शरीर तक को नष्ट नहीं कर सकती। विभुता की दृष्टि से एक ही आत्मा के प्रदेश यदि प्रसारित हों, तो समस्त लोक को व्याप्त कर सकते हैं। . इस प्रकार, हम देखते हैं कि महावीर का आत्मवाद तत्कालीन विभिन्न आत्मवादों का सुन्दर समन्वय है। यही नहीं, वरन वह समन्वय इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि सभी प्रकार की आत्मवादी धाराएं अपने-अपने दोषों से मुक्त हो-होकर यहाँ आकर मिल जाती हैं। हेमचन्द्र इस समन्वय की औचित्यता को एक सुन्दर उदाहरण द्वारा प्रस्तुत करते हैं - गुडो हि कफ हेतुःस्यात् नागरं पित्तकारणम। द्वयात्मनि न दोषोस्ति गुडनागरभेषजे / / जिस प्रकार गुड़ कफजनक और सौंठ पित्तजनक है, लेकिन दोनों के समन्वय में यह दोष नहीं रहते, इसी प्रकार से विभिन्न आत्मवाद पृथक्-पृथक् रूप से नैतिक अथवा दार्शनिक दोषों से ग्रस्त हैं, लेकिन महावीर द्वारा किये गये इस समन्वय में वे सभी अपने-अपने दोषों से मुक्त हो जाते हैं। यही महावीर के आत्मवाद की औचित्यता है। यही उनका

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