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श्रुत्त आत्म विकास का मुख्य कारण होता है । जैसे कि स्थानाङ्ग सूत्र के पांचवें स्थान के तृतीय उद्देश में लिखा है । जैसे कि:
धम्म चरमाणस्स पंच णिस्सा ठाणा पएणते तंजहा:छक्काए, गणे, राया, गिहवती, सरीरं।
(सूत्र ४४७) पञ्च णिही पएणते तंजहाःपुत्तनिही मित्तनिही सिप्पनिही धणिही धन्नणिही ।
(सूत्र ४४८) सोए पञ्च विहे पण्णते तंजहा:पुढवि सोते, आउ सोते, तेउ सोते मंत सोते बंभ सोते ।
(सूत्र ४४६) इस सूत्र में यह वर्णन किया है कि जिस आत्मा ने धर्म ग्रहण किया है उसके पांच आलम्बन स्थान होते हैं। जैसे-छः काया, गण, राजा, गृहपति, और शरीर | जब ये पांचों ही ठीक होंगे तब ही निर्विव्रता पूर्वक धर्म हो सकेगा।
___पांच निधि (कोप) गृहस्थों की होती हैं। (१) पुत्र निधि (२) मित्र निधि (३) शिल्प निधि (४) धन निधि (५) धान्य निधि ।
पांच प्रकार का शौच होता है । जैसे:-पृथ्वी शौच, जल शौच, तेजः शौच, मन्त्र शौच और ब्रह्म शौच । जिस में प्रथम के चार शौच बाह्य हैं और ब्रह्मशौच अन्तरङ्ग है । इन सूत्रों की व्याख्या वृत्तिकार ने बड़े विस्तार से की है जो जिज्ञासुओं के लिये दृष्टव्य है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के संग्रह में पांच पाँच बोलों का संग्रह बड़ी ऊहापोह द्वारा किया गया है। प्रत्येक बोल बड़े महत्व का है और अनेक दृष्टि कोण से विचारने योग्य है । अतः यह संग्रह अत्यन्त परिश्रम द्वारा किया गया है । इस से अत्यन्त ही लाभ होने की संभावना की जा सकती है। मेरे विचार में यह ग्रन्थ प्रत्येक व्यक्ति के लिये उपयोगी है। यदि पाठशालाओं में इसको स्थान मिल जाय तो विद्यार्थियों को अत्यन्त लाभ होगा।