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[१६] सूत्र के चतुर्थ स्थान के प्रथम उद्देश में लिखा है कि वस्त्र चार प्रकार के होते हैं। जैसे किः
चत्तारि वत्था पएणते तंजहा, (१) सुद्धे णाम एगे सुद्धे (२) सुद्धे णाम एगे असुद्धे (३) असुद्धे णाम एगे सुद्धे (४) असुद्धे णामं एगे असुद्धे (५) एवामेव चत्तारि पुरिस जाता पएणते तंजहा:-सुद्धे रणामं एगे सुद्धे चउ भङ्गो ४। एवं परिणतरूवे वत्था सपडिवक्खा । चत्तारि पुरिस जाता पण्णते तनहाः--सुद्धे णाम एगे सुद्धमणे चउ भङ्गो ४ । एवं संकप्पे जाव परक्कमे ।
(सूत्र २३६) इस पाठ का यह भाव है कि वस्त्र चार प्रकार के होते हैं । (१) शुद्ध नाम वाले एक शुद्ध वस्त्र हैं । (२) शुद्ध अशुद्ध (३) अशुद्ध शुद्ध (४) अशुद्ध अशुद्ध । इसी प्रकार पुरुषों के विषय में भी जनाना चाहिये। जिसका ताना बाना शुद्ध हो और क्षोममय वस्त्र हो, वह पहले भी शुद्ध है अर्थात् उसकी उत्पत्ति भी शुद्ध और वस्त्र भी शुद्ध है। इसी प्रकार अन्य भङ्गों के विषय में भी जानना चाहिये । इस चतुर्भङ्गी में वस्त्रों द्वारा पुरुपों के विषय में अत्यन्त सुन्दर शैली से वर्णन किया है। अहिंसक पुरुषों के लिए वस्त्र का प्रथम भङ्ग उपादेय है । दान्तिक में प्रथम भङ्ग वाला पुरुप जगत् में परोपकारी हो सकता है अर्थात् जो जाति कुलादि से सुसंस्कृत है और फिर ज्ञानादि से भी अलंकृत हो रहा है, वही पुरुप संसार में परोपकार करता हुआ मोक्षाधिकारी होजाता है।
__प्रस्तुत ग्रन्थ में बड़ी ही योग्यता के साथ महती पठनीय चतुर्भङ्गोयों का संग्रह किया गया है। वे चतुर्भङ्गिये अनेक दृष्टि कोण से महत्ता रखती हैं । जो मुमुक्षु जनों के लिए अत्यन्त उपादेय हैं और आत्म विकास के लिये एक कुञ्जी के समान हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के पाँचवें बोल संग्रह में पांच पांच बोलों का संग्रह किया गया है। यदि उनको अनुप्रेक्षा पूर्वक पढ़ा जाय तो जिज्ञासुओं को अत्यन्त लाभ हो सकता है क्योंकि उपयोग पूर्वक अध्ययन किया हुआ