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[१८] एव स मणसा स वयसा स कायसा पागड़माणे (जागरमाणे) समणोवासते महाणिजरे महापजवसाणे भवति (सूत्र २१०)
इम पाठ का भावार्थ यह है कि श्रावक तीन अनुपेक्षाओं द्वारा कर्मों की निर्जरा करके संसार चक्र से पार हो जाता है। जैसे किः
__ श्रावक मन, वचन और काया द्वारा निम्नलिखिन तीन अनुप्रेक्षाएं सदैव करता रहे अर्थात् तीन मनोरथों की सदेव काल शुद्ध अन्तःकरण से भावना भाता रहे । जैसे किः--
(१) कब मैं अल्प वा बहुत परिग्रह का परित्याग करूँगा अर्थात् दान दूंगा।
(२) कब मैं मुण्डित होकर घर से निकल अनगार वृति ग्रहण करूँगा।
(३) कब मैं अशनादि का त्याग कर पादोगमन अनशन द्वारा समाधि मृत्यु की प्राप्ति करूँगा ।
ये तीन मनोरथ श्रमणोपासक के लिये सदैव काल उपादेय हैं ।
प्रथम मनोरथ में अल्प वा वहुत परिग्रह का त्याग विषय कथन किया है। किन्तु मूल सूत्र में प्रारम्भ का उल्लेख नहीं है इससे दान ही मिद्ध होता है क्योंकि हेम कोश के द्वितीय देव काण्ड के पचास और इक्कावन श्लोक में दान शब्द के १३ नाम दिये गये हैं। जैसे किः
दानमुत्सर्जनं त्यागः, प्रदेशनविसर्जने। विहायितं वितरणं, स्पर्शनं प्रतिपादनम् ।।५०||
विश्राणनं निर्वपणमपवर्जनमंहतिः । दान धर्म श्री भगवान् ने सर्व धर्मों से मुख्य वर्णन किया है। अतः तृतीय बोल संग्रह में जिज्ञासुओं के लिये अत्यन्त उपयोगी संग्रह किया गया है।
प्रस्तुत प्रन्थ के चतुर्थ बोल संग्रह में विस्तार पूर्वक चतुर्भङ्गियों का संग्रह है जो अनेक दृष्टियों से बड़े ही महत्व का है। जैसे स्थानाङ्ग