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श्रीमान् सेठ भैरोंदानजी को अत्यन्त धन्यवाद है कि वे इतनी वृद्धावस्था होने पर भी श्रुत ज्ञान के प्रचार में लगे हुए हैं ।
श्रुत ज्ञान का प्रचार ही आत्म विकास का मुख्य हेतु है । इसी से आत्मा अपना कल्याण कर सकता है। क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्र के २६ वं अध्ययन के २४ वें सूत्र में लिखा है कि:
सुरस राहण्याए णं भन्ते जीवे किं जणयइ ? | सुस्स राहण्या अन्नाणं खवेइ ण य संकिलिस्सइ || २४ ||
इस पाठ का यह भाव है कि भगवान् श्री गौतम जी महाराज श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी से पूछते हैं कि हे भगवन् ! विधि पूर्वक भूत की अराधना करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री भगवान् फरमाते हैं, कि हे गौतम सम्य
या श्रुत की आराधना करने से अज्ञान और क्लेश का नाश हो जाता है। कारण कि क्लेश अज्ञान पूर्वक ही होता है । जब अज्ञानता का नाश हुआ तब क्लेश साथ ही नष्ट हो जाता है। अतः सिद्ध हुआ श्रुत आराधना के लिए स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए क्योंकि स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्म क्षय हो जाता है । फिर आत्मा ज्ञान स्वरुप में लीन होजाता है । जैसे कि आगम में कथन है कि:
सझाए भन्ते जीवे किं जणेइ
नाणावर णिज्जं कम्मं खवेइ || १८ ||
अतः स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। स्वाध्याय करने से ही फिर आत्मा को प्राय: चारित्र गुण की प्राप्ति हो जाती है चाहे वह देश चारित्र हो या सर्व चारित्र । सूयगडांग सूत्र प्रथम श्रुत स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के तृतीय उद्देश की १३ वीं गाथा में लिखा है:
गर पिअ आवसे नरे, अणुपुत्रं पाणेहिं संजए । समता सव्वत्थ सुव्वते, देवाणं गच्छे स लोगयं ॥ १३ ॥