Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 10
________________ ( 1 ) प्र०७५-भेदरुप व्यवहार को कैसे अगीकार नहीं वरना ? प्र० ७६-व्यवहार मोक्षमार्ग विना निश्चय मोक्षमार्ग का उपदेश कैसे नहीं होता है। प्र० ७७ - व्यवहार मोक्षमार्ग को कैसे अगीकार नहीं करना । तीसरी तरह से प्र०७८-निश्चय व्यवहार के विपय मे प० जी ने क्या बताया। प्र० ७६-निश्चय व्यवहार के विषय मे अमृतचद्राचार्य जी ने क्या बताया ? प्र० ८०-निश्चय व्यवहार के विषय मे कुन्द कुन्द भगवान ने क्या बताया ? प्र०८१-निश्चय का श्रद्धान क्यो करने योग्य है ? प्र० ८२-व्यवहार का श्रद्धान क्यो छोडने योग्य है ? प्र०८३-यदि ऐसा है जिनवाणी में दोनो नयो का ग्रहण क्यो कहा है ? प्र० ८४-ऐसे भी है और ऐसे भी तो क्या दोष आता है ? प्र० ८५ - व्यवहार झूठा है तो उसका उपदेश क्यो दिया ? प्र० ८६-व्यवहार बिना निश्चय का उपदेश कैसे नही होता? प्र०८७-व्यवहार को कैसे अगीकार न करना ? प्र०८८-व्यवहार को सच्चा माने उसे क्या-क्या कहा है ? - - - - ६५ अनमोल रत्न (१) जिस घर मे भगवान की स्तुति, भक्ति नहीं की जाती वह घर कसाईखाने के समान है। (२) जो जिनवाणी का अध्ययन नहीं करते वे अन्धे हैं। (३) जो लोभी दान मे लक्ष्मी का उपयोग नहीं करता है वह कौए से भी हल्का है।

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