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मैं फोधी है । ( ८ ) मुझ आत्मा-अबन्ध स्वभावी है। नोव का भाव बन्ध स्वभावी है ऐसा जानकर अपनी ज्ञान की पर्याय को अवन्ध स्वभावी निज आत्मा की ओर का दे तो भाव अलग पड
जावेगा ।
प्रश्न ५-जीव बन्ध को जानने-मानने से क्या लाभ रहा ?
उत्तर- (अ) जैसे-जैसे अवन्ध स्वभावी निज आत्मा में एकाग्र होता चला जावेगा, वैसे-वैसे बन्ध स्वभाव से भिन्न होता चला जावंगा और क्रम से मोक्ष लक्ष्मी का नाथ बन जावेगा ।
( आ ) जीव बन्ध के जानने-मानने से समयसारादि सम्पूर्ण अध्यात्म ग्रन्थो का मर्म उसके हाथ मे आ जावेगा ।
प्रश्न ६ - यह मेरा सोने का हार है- यह कौन सा बन्ध है और इसमे बन्ध की चार बातें लगाकर समझाइये ?
उत्तर-सोने का हार - यह पुद्गल बन्ध है । (१) सोने का हारयह सम्बन्ध विशेष है । (२) सोने के हार में अनन्त पुद्गल परमाणु है - यह अनेक वस्तुये हुई । (३) बाहरी रूप से देखने मे तथा कथन मे आता है - यह मेरा मोने का हार है । (४) (अ) सोने का हार ओदारिक शरीर है और इसका कर्ता वार्गणा ही है । [आ] सोने के हार में अनन्त पुद्गल परमाणु है। [इ] प्रत्येक परमाणु मे अस्तित्ववस्तुत्वादि अनन्त सामान्य गुण है और स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण आदि अनन्त विशेष गुण है । प्रत्येक परमाणु एक-एक व्यजन प्रर्याय और अनन्त - अनन्त अर्थ पर्यायो सहित विराज् रहा है । [ई] जब सोने के हार में एक परमाणु का दूसरे परमाणु में किसी भी अपेक्षा किमी भी प्रकार का सम्वन्ध नही है तो मुझ आत्मा से सोने के हार का सम्बन्ध कैसे हो सकता है? कभी भी नही हो सकता है। ऐसा श्रद्धान ज्ञान वर्ते तो उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से ऐसा कहा