Book Title: Jain Siddhant Bhavan Granthavali Part 02
Author(s): Rushabhchand Jain
Publisher: Jain Siddhant Bhavan Aara

View full book text
Previous | Next

Page 469
________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Pūjā- Pātha-Vidhāna ) पावए अष्टौ सिद्ध इति श्री पच कल्याणक जी समाप्तम् । Closing Colophon : Opening Closing Colophon. Opening P Closing Col phon : चउसहि गए ||२५| २६३ देखें, जं० सि० भ० ग्र० I, ऋ० ८८ । १८६७. पंचकल्याणक पाठ देखे, ऋ० १८६६ । फुनि हरे पातक र विधन जे होय मगल नित नए । भनि रूपचद त्रिलोकपति जिनदेव चउ सघहिंगए ॥ २६ ॥ इति श्री पचकल्याणक सपूर्णम् । १८६८. पंचकल्याणक पूजा मिद्ध कल्याणरीज कलिमलहरण पंचकल्याणयुनतम् स्फूर्यदेवेन्द्रवर्ये मुकुटमणिगणप्तपादारविन्दम् । भवत्या नत्वा जिनेन्द्रसकलसुषकर कर्म्मवल्ली कुठारम्, कुर्वेऽह पूजन वै: प्रवलभवभय शान्तये श्री जिनानाम् ||१|| इति शान्तिधारा त्रय - कल्याणभूषिताः सुरनुता सत्य च वोधान्विता । भव्य सद्विधिना विधानसमये सपूजिता सस्तुता ॥ त्रैलोक्येश महोदरोभ्येव सुख समारक चाप्नुतम्, मोक्ष चापि दिशतु वे जिनवराः सर्वात्मना सर्वदा ॥ ६ ॥ इति श्री पचकल्याणकपूजा समाप्तम् । देखे, जै० सि० भ० प्र० I, क्र०८१७ । दि० जि० प्र०र०, पृ० १८४ १ Cagt, of Sht & Pkt Ms P 662

Loading...

Page Navigation
1 ... 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519