Book Title: Jain Shastra sammat Drushtikon
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 22
________________ सत्य और विवेकका आग्रह उक्त दृष्टिकोण लोक-व्यवस्थाका विरोधी नहीं, उसमे मत्यका आग्रह है। वह यह है कि लोक-व्यवस्थाको लोक-वष्ठिसे तोलाजाय और आत्म-साधनाको मोक्ष-दृष्टिसे । लौकिक कार्योको आत्म-धर्म या मोक्षका मार्ग मनाजाय, यह उचित नहीं। आचार्य भिक्षुने दयाका नाश नहीं किया। उन्होंने दयाको कसौटीपर कसनेका आग्रह रखा। उनकी माग थी 'विवेक'। वे दया-धर्मको स्वीकार करते थे, किन्तु विवेकके साथ । उनकी भाषामें देखिए "दया दया सब को कहे, दया धर्म छै ठीक । दया ओलखने पालमी, त्यारे मक्ति नजीक ।" आचार्य भिक्षुने यह नहीं कहा कि लौकिक आवश्यकताकी पूर्ति, दया, दान, उपकार और सेवा मत करो। उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि इन्हें मोक्षार्थ या आत्मिक दया, दान, उपकार और सेवाकी कोटिमे मत रखो-दोनोंको एक मत करो।

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