Book Title: Jain Shastra sammat Drushtikon
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ [ १८ ] [प्लावा ह्येते अद्दढा यज्ञस्पा, अष्टादशोक्तमवर येषु कर्म । एतच्छे यो येऽभिनन्दन्ति मूढा, जरामृत्यु पुनरेवापयन्ति ] वेद-व्यास__"वेदमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दो प्रकारके धर्म वतलाये गये है। कर्मके प्रभावसे जीव संसारके बन्धनमें बंधा रहता है और ज्ञान के प्रभावसे मुक्त होजाता है।" -महाभारत, शान्तिपर्व अ० २४१ भगवद्गीता-- "आसुरी प्रकृतिवाले लोग प्रवृत्ति और निवृत्तिका तत्त्व नहीं समझते । उनमें शौच, आचार और सत्य नहीं होता।" [प्रवृत्तिच निवृत्तिच, जनान, विदुरासुरा । न शौच नापि चाचारो, न सत्य तेषु विद्यते ॥] -अध्याय १५, श्लोक ७ "प्रवृत्ति, निवृत्ति, कार्य, अकार्य, वन्ध और मोक्षको जो जानती है, वह सात्त्विक बुद्धि है।" [प्रवृत्तिच निवृत्तिंच, कार्याकार्ये भयाभये । वन्ध मोक्ष च या वेत्ति, बुद्धि सापार्थ सात्त्विकी ॥] -अ० १७, श्लोक ३०

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53