Book Title: Jain Shastra sammat Drushtikon
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 39
________________ [२३] दृष्टिमे व्यवहार-सासारिक कारणोंकी मुख्यता है और अलौकिक दृष्टिमें परमार्थ की। इसलिए अलौकिक दृष्टिको लौकिक दृष्टिके फलके साथ मिलादेना उचित नहीं ।" [ लौकिक दृष्टि अन े अलौकिक ( लोकोत्तर) दृष्टि मा मोटो भेद छे, अथवा एक बीजी दृष्टि परस्पर विरुद्ध स्वभाववाली छे लौकिक दृष्टि मा व्यवहार - सासारिक कारणोन, मुख्यपण छे माटे अलौकिक दृष्टिन े लौकिक दृष्टिना फलनी साथै प्राये ( घणु करीन ) मेलवी योग्य नहि ] — श्रीमद् राजचन्द्र, वर्ष १६ वा पृष्ठ ३४८ “हे काम | हे मान ! हे संग- उदय ! हे वचन वर्गणा । हे मोह ! हे मोहदया । हे शिथिलता । तुम सब क्यों अन्तराय करते हो ? परम अनुग्रह करके अब अनुकूल बनो । " 1 1 1 [ हे काम हे मान हे सग-उदय हे वचन वर्गणा । हे मोह | हे मोह-दया । हे शिथिलता । तमे शामाटे अन्तराय करो छो ? परम अनुग्रह करीन हवे अनुकूल थाव ] -तत्त्वज्ञान, पृष्ठ १२६ महात्मा गांधी मानवोंमे जीवन-संचार किसी न किसीकी हिंसासे होता है । इसलिए सर्वोपरि धर्मकी परिभाषा एक नकारात्मक कार्य, अहिंसासे की गई है। यह शब्द संहारकी संकडीमे बंधा हुआ है । दूसरे शब्दोंमे यह कि शरीरमें जीवन - संचारके लिए हिंसा

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