Book Title: Jain Shastra sammat Drushtikon
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 41
________________ [ २५ अहिंसामे गिनाया ही नहीं। वह वधे अनिवार्य होकर क्षग्य"" भलेही गिनाजाय किन्तु अहिंसा तो निश्चय ही नहीं है।" -अहिंसा पृष्ठ ५० स्थानकवासी आचार्य जवाहिरलालजी... ___ “कृपि, गोरक्षा, वाणिज्य, संग्राम, कुशील ये क्रियाएँ चाहे मिथ्याष्टिवी हों या सम्यगृहष्ठिकी हों, संसारके लिए होती हैं। इनमे मोक्ष-मार्गकी आराधना न होना प्रत्यक्ष सिद्ध है।" – सद्धर्ममण्डन, पृष्ठ ५५ “जो जिस दानके लायक नहीं है, वह यहाँ उस दानका अक्षेत्र समझाजाता है, जैसे मोक्षार्थ दानका साधुसे भिन्न अक्षेत्र है।" -सद्धर्ममण्डन, पृष्ठ १३५ साधु टी. एल. वासानी___ "सब जीवोंको अपने समान समझो और किसीको हानि मत पहुचाओ। इन शब्दोंमे अहिंसाका द्वयर्थी सिद्धान्तविधेयात्मक और निपेधात्मक सन्निहित है। विधेयात्मकमें एकता का संदेश है-सवमे अपने आपको देखो। निषेधात्मक उससे उत्पन्न होता है-किसीको भी हानी मत पहुंचाओ। सबमे अपने आपको देखनेका अर्थ है सवको हानि पहुंचानेसे बचना। • यह हानिरहितता सवमे एकही कल्पनासे विकसित होती है।" -हिन्दुस्तान ता० २८-३-५३

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