Book Title: Jain Shastra sammat Drushtikon
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दया-दान पर आचार्य श्री भिक्षु का न जैन-शास्त्रसम्मत दृष्टिकोण [आचार्य श्री तुलसीको निरूपण-पद्धतिके आधार पर मुनि श्री नथमलजी प्रकाशक आदर्ण साहित्य संघ सरदारशहर (राजस्थान) Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दया-दान पर आचार्य श्री भिक्षु का जैन-शास्त्रसम्मत दृष्टिकोण [आचार्य श्री तुलसीकी निरूपण-पद्धतिके माधार पर] मुनि श्री नथमलजी प्रकाशक आदर्या साहित्य संघ सरदारशहर (राजस्थान) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक आदर्श साहित्य संघ सरदारशहर ( राजस्थान ) 33004 SAS 245 245 34 EE 3452 EMERE प्रथमावृति ३००० भाद्र शुक्ला ५ सं० २०११ मूल्य (-) 2055 2054 2053 2 मुद्रक धन्नालाल बरड़िया रेफिल आर्ट प्रेस (आदर्श - साहित्य सङ्घ द्वारा सञ्चालित) ३१, बड़तल्ला स्ट्रीट कलकत्ता ७ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इमं च ण सव्यजगजीवरक्खणदयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं । प्रश्नव्याकरण सूत्र १ सवरद्वार भगवान्ने जगत्के सर्व जीवोकी रक्षाके लिए प्रवचन किया अर्थात प्रत्येक व्यक्ति सव जीवोकी हिंसासे बचे, इसलिए प्रवचन किया। इम च अलियपिसुणपरुसकडुयचवलवयणपरिरक्खणट्टयाए पाययणं भगवया सुकहियं । -~-प्रश्नव्याकरण सूत्र २ सवरद्वार सब जीव अलीक, पिशुन, कठोर, कटु, चपल वचनसे बचें, इसलिए भगवान्ने प्रवचन किया। Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख सत्य स्वयं ढंकाहुआ होता है। उसमे भी एक तो वह तत्त्व हो और दूसरे आध्यात्मिक । फिर सहज दर्शन कैसे मिले ? आत्माकी अन्दरकी तहोमे पहुंचकर ही विरला व्यक्ति उसे देख पाता है। आचार्य भिक्षुकी सूक्ष्म और पारदर्शी दृष्टिने देखा, वह सत्य महान् आध्यात्मिक सत्य है । उसतक पहुंचना कठिन है, इसमे कोई दो मत नहीं। स्वयं आचार्य भिक्षुने स्वानुभूत सत्यको अपनी स्फुट वाणी द्वारा रखा । उनके उत्तरवर्ती आचार्यों, शिष्य-प्रशिष्योने विविध युक्तियो द्वारा उसे बुद्धिगम्य बनाया। किन्तु युग बदलता है, भापा वदलजाती है, समझनेकी स्थिति वदलजाती है। सत्यके नहीं बदलने पर भी स्थितिया बदलती है, तब उस (सत्य) तक पहुंचनेकी पद्धतिया भी वदलना चाहती है और उन्हे वदलना भी चाहिए। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ख ] आजका परिवर्तन आजकी पीढीके लिए नया होता है। वही बादकी दो चार पीढियोंके लिए पुराना यह क्रम सदासे चला आरहा है। तेरापन्थके सिद्धान्तोंको गम्भीरतासे नहीं समझनेवाले कुछ व्यक्ति कहते है-ये सिद्धान्त अच्छे नहीं है। ये लोग परोपकार करनेका निषेध करते है। तेरापन्थके सिद्धान्तको सहृदयतासे नहीं समझनेवाले कहते हैं इनके मूल सिद्धान्त परोपकारके निषेधक ही थे किन्तु आचार्य तुलसीने उन्हें बदल डाला। __ प्रथम श्रेणीके व्यक्ति गम्भीरतासे देखें तेरापन्थ के सिद्धान्त परोपकारमे वाधा डालनेवाले नहीं किन्तु उसकी विविध भूमिकाओंका बोध करानेवाले है। आचार्य भिक्षुरचित कुछ गाथाएँ पढ जाइये - दान देता कहै तू मत दे इणनें, तिण पाल्यो निपेध्यो दानो। पाप हुंता नै पाप बतायो, तिणरो छ निर्मल ज्ञानो ॥ असजती नै दान दिया में, कहदियो भगवत पापो। त्या दाननै वरज्यो निषेध्यो नाही, हुती जिसी कीधी थापो॥ साधुने वरज्यो तिण घरमें न पैसे, करडा कह्या तिण घर माहि जावे । निपेध्यो ने करडो वोल्या ते, एकण भाषा में न ममावै ॥ ज्यू कोई दान देता वरज राखै, कोई दीघा में पाप बतावै । ए दोनू इ भाषा जुदी जुदी छै, ते पिण एकण भाषामें न समावै ।। (व्रताव्रत ३ । ३६,४०, ४२, ४३) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ग ] दूसरी श्रेणीके व्यक्ति सहृदयतासे देखें- तेरापन्थके सिद्धान्तोंका परोपकारवाधक रूप न पहले था और न आचार्य तुलसीने अव उसे बदला है। आचार्य श्री तुलसीने निरूपण पद्धतिको वदला है। तात्पर्य यह है कि आचार्य भिक्षुके दृष्टिविन्दुको युगकी भाषामें रखा है। आचार्य भिक्षु और आचार्य तुलसीके सत्य दो नहीं यह अचरजकी बात नहीं। अचरजकी बात यह है कि इनके शब्द प्रयोग भी एक है। आचार्य तुलसी मामाजिक आवश्यकताओंको लोक-धर्म कहते है, तब अनजान आदमी कहते है भीखनजी इन्हें पाप कहते थे और ये इन्हें लोक-धर्म कहने लगे है। आचार्य तुलसीके इस शब्द प्रयोगके आधारको वे नहीं जानते। आचार्य भिक्षुको सामाजिक आवश्यकताओंको 'लोक-धर्म' माननेमें कोई आपत्ति नहीं थी। उनको 'मोक्ष-धर्म न मानाजाय-यह आचार्य भिक्षुका अभिमत था। उन्होंने बताया-सांसारिक सहयोगमे मुक्तिका' धर्म जिन'-धर्म, केवली'-धर्म नहीं है। किन्तु इनमे लोकसम्मत धर्म १-(क) जिमाया कहै मुक्ति रो धर्मों। (व्रताव्रत ७११) (ख) मोल लिया कह धर्म मोक्ष रो, ए फद माडयो हो कुगुरु कुबुद्धि चलाय । (अणुकंपा ७६३) २-ससारतणा उपगार किया, जिण धर्म रो अश नही छै लिगार । (अणुकम्पा ११२३६) ३-बचावणवालो ने उपजावणवालो, ए तो दोनू ससारतणा उपगारी एहवा उपगार कर आमा साहमा, तिणमे केवली रो धर्म नही छ लिगारी॥ (अणुकंपा १११४२) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [ घ ] नहीं, यह उन्होंने नहीं कहा। सासारिक सहयोगको संसारका उपकार', संसारका कर्तव्य', लौकिक दया', आदि माननेका उन्होंने कब विरोध किया ? उनका दृष्टिकोण यही था कि राग, द्वष, मोह हिंसा है, संसारका मार्ग है। इन दोनों (संमारमार्ग और मोक्ष-मार्ग) को एक न समझाजाय। ___आचार्य तुलसीने आचार्य भिक्षुके इस दृष्टिकोणका युगकी भावनाके साथ जो सामंजस्य स्थापित किया है, यह अलौकिक दृष्टिकोण जो लोकबुद्धिगम्य बना है, वह आचार्यश्रीकी निरूपण शैली का ही परिणाम है। प्रस्तुत निबंधमे इसीके आधारपर आचार्य भिक्षुके आध्यात्मिक दृष्टिकोणको समझनेका प्रयन कियागया है। वाव (गुजरात) -मुनि नथमल ता०२१-४-५४ १-(क) जीवाने जीवा वचाविया, हुवै 'ससारतणो उपगार'। (अणुकंपा १२८) (ख) जीवान मार जीवान पोखे, ते तो 'मार्ग ससार नो' जाणो। _(अणुकंपा ६२४) २-ए दान 'ससारतणो किरतब' छ, तिणमे मोक्ष रो मार्ग नाही। (व्रताव्रत १६८) ३–लारला सुखी दुखी री कीरप करसी, आ लौकिक दया जाणो । • (सरधा री चौपी २२॥५४) ४-ससार मोक्ष तणा उपगार, समदृष्टि हुवै ते न्यारो न्यारो जाण । (अणुकंपा ११३५२) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दया-दान पर आचार्य भिक्षु का जैन शास्त्रसम्मत दृष्टिकोण' सर्वोदय ज्ञानमालाका छठा पुष्प है। जिसका उद्देश्य विशुद्ध तत्त्व-ज्ञानके साथ भारतीय और जैन-दर्शनका प्रचार करना है। प्रस्तुतः ग्रन्थके प्रकाशनमें रामगढ़ (शेखावाटी) निवासी श्री रावतमलजी बाठियाने अपने स्व. पिताश्री दानमलजी की स्मृतिमे नैतिक सहयोगके साथ आर्थिक योग देकर अपनी सांस्कृतिक व साहित्य-सुरुचिका परिचय दिया है, जो सबके लिए अनुकरणीय है। हम आदर्श-साहित्य-संघकी ओर से सादर आभार प्रकट करते हैं। -प्रकाशन मन्त्री Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची क्र० सं० विषय १ - आचार्य भिक्षुकी परम आध्यात्मिक दृष्टि २ - तेरापन्थ के दार्शनिक विचारोंकी पृष्ठभूमि ३ - सत्य और विवेकका आग्रह ४ - शब्द प्रयोगकी भिन्न-भिन्न दृष्टियाँ ५- आचार्य भिक्षुके विचारोको आध्यात्मिक पृष्ठभूमि ६ - अहिसा और दया दान अन्य विचारकोंकी दृष्टिमे ७ – धर्म-संकटके प्रश्न और उनका समाधान ८— उढ़ार बनिए ६- पवित्र प्रेरणा पुष्ट १ छ ८ ফ १७ २६ ३५ ३७ Page #15 --------------------------------------------------------------------------  Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भिक्षु की परम आध्यात्मिक दृष्टि तेरापन्थके प्रवर्तक आचार्य भिक्षुने जैन-सूत्रोंके आधार पर जो विचार स्थिर किये, वे लोक-व्यवहारसे भिन्न है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। मोक्ष और संसारका मार्ग एक नहीं, तब दोनोंका आचार-विचार एक कैसे हो सकता है । आचार्य भिक्षु पारखी थे। गुणोके प्रति उनकी श्रद्धा थी किन्तुथी परखपूर्वक । उन्होने कहा, छद्मस्थ दशामें श्रमण भगवान् महावीरने गोशालकको वचानेके लिए लब्धि' का प्रयोग किया, वह उनकी मर्यादाके अनुकूल नहीं था। वे ऐसा कर नहीं सकते थे किन्तु रागवश करडाला। जो व्यक्ति अपने श्रद्धास्पद देव और गुरुकी आलोचना कर मकता है, वह तत्त्वकी आलोचना न करे, यह संभव नहीं। १-असर्वज्ञ-अवस्था २-योगजन्य शक्ति Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] आचार्य भिक्षु, जो श्रद्धा और तर्क दोनोको साथ लिहुए चले, वे धर्म-तत्त्वोंको भी आलोचनाके बिना कैसे स्वीकार करते ? ___ उन्होंने धर्मके मौलिक तत्त्व या मुख्य साधन-अहिंसाको कसौटी पर कसा। परिणाम यह निकला कि व्यावहारिक, लौकिक या सामाजिक दया, दान, सेवा, सहयोग, उपकार आदि-आदितत्त्व विशुद्ध अहिंसात्मक दया, दान, सेवा, सहयोग, उपकार आदिसे अलग होगये। ____ आचार्य भिक्षुके आठ वर्षके शास्त्रीय मंथन द्वारा स्थिर किये हुए विचार जनताके सामने आये, तब क्रन्ति सी मचगई । उनके मजबूत आचार, कुशल अनुशासन, व्यवस्थात्मक संगठन और जनताके वढतेहुए आकर्पणने तात्कालिक साधु-संस्थाको सहजवृत्त्या चुनौती दे डाली। अव वे विरोधके केन्द्रविन्दु वनगये। उनके विचार गहरे थे, उस समयके लिए नये थे, चालू प्रवाहके अनुकूल नहीं थे, लोक-मानसकी सूझसे बहुत दूर थे, अध्यात्मकी उच्च भूमिका पर रहेहुए थे, इसलिए विरोधकर्ताओंने उनके नवीन विचारोको ही विरोधका साधन बनाया। उनके आध्यात्मिक सिद्धान्तोंकी मौलिकताको छिपाकर उनका इस भाषामे प्रचार कियागया, -भीखणजी भगवान् महावीरको चूका कहते है । २-ये विल्लीसे चूहेको छुडानेमे पाप कहते है। ३–आगमें जलतीहुई गायोंको बचानेमें पाप कहते है। ४-छतसे गिरतेहुए अथवा दुर्घटनामे फॅसेहुए वच्चेको बचानेमे पाप कहते है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] ५-औषधालय, विद्यालय, अनाथालय, कुआ, तालाब, __ प्याऊ आदि करानेमे पाप कहते है । -भूखे-प्यासेको रोटी-पानी देनेमे पाप कहते हैं। --माता-पिताकी सेवा करनेमे पाप कहते हैं। ८-अपने सिवाय सबको कुपात्र मानते है-आदि आदि। तेरापन्थके विरोधमे प्रचारका यह रूप आज भी चालू है । जो व्यक्ति तेरापन्थके मौलिक सिद्धान्तोकी जानकारी नहीं करते, व तेरापन्थको परिभाषा यही जानते है कि तेरापन्थी वह है, जो मरतेको बचानेमे पाप कहता है। विरोधमे सत्यका गला घोटा जाता है। विरोधी प्रचारके द्वारा कहीं भी असलियतको पकडा नहीं जा सकता, इसलिए यह आवश्यक है कि तेरापन्थका दृष्टिकोण समझनेके लिए उमीके साहित्यका अध्ययन कियाजाय । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापन्थके दार्शनिक विचारोंकी पृष्ठभूमि जैन-धर्मका एकमात्र उद्देश्य आत्म-विशुद्धि या मोक्ष है । जैन- दर्शनमें सिर्फ इसीका विचार कियागया है । लौकिक जीवनकी सुख-सुविधा पर जैन-दर्शन या मोक्ष - शास्त्र कोई विचार नहीं करता । उसकी दृष्टिमें यह समाज - शास्त्रका विपय है । प्रत्येक शास्त्र' की अपनी-अपनी सीमा होती है। एक कोटिका शास्त्र सब क्षेत्रों में सफल नहीं बन सकता । समाजके लिए हिंसा आवश्यक या अनिवार्य होती है । मोक्षका साधन है एकमात्र अहिंसा । इसलिए मोक्ष - शास्त्र १ - सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षस्यैव साध्यस्य साधनानि नान्यस्यार्थस्य, मोक्षश्च तेषामेव साधनाना साव्यो नान्येषामिति । " भगवती वृत्ति १ । १ [ सम्यग् दर्शन आदि मोक्षरूप साध्यके ही साधन है, अन्यके नही, और मोक्ष उन्ही साघनोका साध्य है, औरोका नही । ] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] हिंसाके सर्व-त्यागका, सर्वत्याग न करसके उसके लिए अंशत्यागका विधान कर सकता है। किन्तु वह कहीं, कभी और किसी भी हालतमे हिंसा करनेका विधान नहीं कर सकता। आवश्यक हिंसाका जहा कहीं भी विधान या समर्थन मिलता है, वह समाज-शास्त्रका विषय है। समाज-शास्त्र ही समाजकी आवश्यकताके अनुसार थोडी या अधिक हिंसाको प्रोत्साहन देते है। अध्यात्ममार्गी ऐसा नहीं कर सकता। तात्पर्य यह हुआ-अहिंसा मोक्षका मार्ग है और हिंसा संसारका । समाज मे हिंसा और अहिंसा,दोनो चलते है। जितनी हिंसा है उतना संसार है और जितनी अहिंसा है उतनी मुक्ति है । हिंसा और अहिंसाको, संसार और मुक्तिको एक नहीं समझना चाहिए । यही जैन-दर्शनका मर्म है और यही आचार्य भिक्षु या तेरापंथ के दार्शनिक विचारोंकी पृष्ठभूमि है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य और विवेकका आग्रह उक्त दृष्टिकोण लोक-व्यवस्थाका विरोधी नहीं, उसमे मत्यका आग्रह है। वह यह है कि लोक-व्यवस्थाको लोक-वष्ठिसे तोलाजाय और आत्म-साधनाको मोक्ष-दृष्टिसे । लौकिक कार्योको आत्म-धर्म या मोक्षका मार्ग मनाजाय, यह उचित नहीं। आचार्य भिक्षुने दयाका नाश नहीं किया। उन्होंने दयाको कसौटीपर कसनेका आग्रह रखा। उनकी माग थी 'विवेक'। वे दया-धर्मको स्वीकार करते थे, किन्तु विवेकके साथ । उनकी भाषामें देखिए "दया दया सब को कहे, दया धर्म छै ठीक । दया ओलखने पालमी, त्यारे मक्ति नजीक ।" आचार्य भिक्षुने यह नहीं कहा कि लौकिक आवश्यकताकी पूर्ति, दया, दान, उपकार और सेवा मत करो। उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि इन्हें मोक्षार्थ या आत्मिक दया, दान, उपकार और सेवाकी कोटिमे मत रखो-दोनोंको एक मत करो। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द - प्रयोगकी भिन्न-भिन्न दृष्टियां आचार्य भिक्षुने समाजकी व्यवस्थाका समाज-शास्त्रकी भाषामे निरूपण किया, तब उसे सासारिक' कर्तव्य, लौकिक 'उपकार', लौकिक' अभिप्राय आदि -आदि कहा और जब उन्होंने आत्म-शुद्धिकी पद्धतिका अध्यात्मकी भाषामे निरूपण किया, तत्र उसे अधर्म, पाप, संसार आदि -आदि कहा | १ - ए ( कारुण्य) दान ससारतणो किरतब छै, तिणमें मोक्ष रो मार्ग नाहि । व्रताव्रत १६।८ २ -- कोई जीव छुडाव लाखा दाम दे, ते तो आपरो सिखायो नहि धर्म | ओ तो उपकार ससारनो, तिणसू कटता न जाणे कर्म ॥ व्रताव्रत १२।५ ३-अव्रत मे दे दातार, ते किम उतरे भवपार । छान्दो इण लोक रोए, मारग नही मोख रो ए ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८ ] उन्होंने जिन दो भिन्न दृष्टिकोणोंसे लौकिक कर्तव्योका मूल्याङ्कन किया, उन्हीं दृष्टिकोणोसे अगर उन्हें आकाजाय नो कोई दुविधा नहीं आती। दुविधा तब आती है, जब उनकोलौकिक कर्तव्योको और आचार्य भिक्षु द्वारा उनके लिए दिये गये शब्द-प्रयोगोंको एक ही दृष्टिसे आकाजाता है। ___ इस दृष्टि-भेदको ध्यानमे रखकर आप तेरापन्थ पर लगाये जानेवाले आरोपोकी समीक्षा कीजिए और उसके सिद्धान्तों पर गम्भीरतासे मनन कीजिए। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भिक्षुके विचारोंकी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि तेरापन्थकी अपनी मान्यता यह है२-अहिंसा-प्राणीमात्रके प्रति जो संयम है, वह अहिसा' है। उसके दो रूप हैं-विधि और निपेध । संवर या संयम, अप्रवृत्ति या निवृत्ति निपेधात्मक अहिंसा है। निर्जरा या शुभ योगकी प्रवृत्ति या राग-द्वीप-मोह-रहित प्रवृत्ति या संयमयुक्त प्रवृत्ति, विधिरूप अहिंसा है। २-स्थानागसूत्र' मे संयमकी परिभापा बतातेहुए लिखा १--अहिंमा निउणा दिट्ठा, सन्वभूएसु सजमो । -दगर्वकालिक ६।९ २-बेइदियाण जीवा असमारंभमाणस्स चउविहे सजमे कज्जइ, तजहा–जिन्भामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवइ, जिस्भा,, मयेण दुक्खेण अमजोगेत्ता भवइ, फासामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवइ, फासामयामो दुक्खाओ असंजोगेत्ता भवइ । -स्थानाग ४।४ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] है-"मुखका व्यपरोपण या वियोग न करना और दुःखका संयोग न करना संयम है।' यह निवृत्तिरूप अहिंसा है। आचारागसूत्रमे धर्मकी परिभाषा बताते हुए लिखा है-"सब प्राणियोंको मत मारो, उनपर अनुशासन मत करो, उनको अधीन मत करो, दासदासीकी भांति पराधीन बनाकर मत रखो, परिताप मत दो, प्राण-वियोग मत करो यह धर्म ध्रुव, निल और शाश्वत है । खेदन तीर्थंकरोंने इसका उपदेश किया है।" यह भी निवृत्तिरूप अहिंसा है । भगवान् महावीर ने प्रवृत्तिल्प- अहिंसाका भी विधान किया है. किन्तु मव प्रवृत्ति अहिंसा नहीं होती। चारित्रमे जो प्रवृत्ति है, वही अहिंसा है। अहिंसा के क्षेत्रमे आत्मलक्षी प्रवृत्तिका विधान है और संसारलक्षी या परपदार्थलक्षी प्रवृत्तिका निषेध। ये दोनों क्रमशः विधिरूप अहिंसा और निपेधरूप अहिंसा बनते है । देखिए उत्तराध्ययन २४।२६ "एयाओ पचममिडओ, चरणम्म पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, अनुभत्येसु मन्वसा ।" १-मचे पाणा मव्वे भूया सबे जीवा सब्बे मत्ता न हन्तव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिघेतव्वा, न परियावयन्वा, न उद्दवेयवा। एस धम्मे युद्धे निमिए नामए । आचाराग ४।१ । १२७ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] समिति शुभ अर्थका व्यापार प्रवृत्ति-धर्म है और गुप्ति-अशुभ-अर्थका नियन्त्रण निवृत्ति-धर्म है। ३-अहिंसाका आधार करुणा नहीं, संयम' है। अहिंसा आत्म-धर्म या मोक्ष-मार्ग है। उसका साध्य हैमोक्ष। मोक्षका अर्थ है-चन्धनसे मुक्ति । प्राण-रक्षा उसका साध्य नहीं है। गौणरूपमे वह अपनेआप हो जाती है। ४-पारमार्थिक दया-अध्यात्म-दया और अहिंसा एक है। व्यावहारिक ठया मोक्षका मार्ग नहीं है, आत्म-साधना नहीं है किन्तु सासारिक वन्धन है। जो बन्धन है, वह मोक्षके प्रतिकूल है। पुण्य शुभ-पुद्गलोका बन्धन है-सोनेकी वेडी है और पाप अशुभ-पुद्गलोंका वन्धन है-लोहेकी वेडी है, आखिर दोनो वेडियां है । आध्यात्मिक दृष्टिका ध्येय है-मोक्ष । वह इन दोनोंके छूटनेसे मिलता है। ५-संसारके अनुकूल कार्य या प्रवृत्तिसे संसार कटता नहीं। उसे काटनेका उपाय है वीतराग-भाव और वही विशुद्ध या मोक्षके अनुकूल अहिंसा है। है-अहिंसा और दयाकी परिभाषा यह है जो प्रवृत्ति मूक्ष्म या स्थूल राग, द्वप, क्रोध, मान, माया, लोभ, १-सव्वे पाणा न हन्तव्वा -आचाराग ४११ । १२७ - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] अज्ञान, भय, वासना, प्रमादसे प्रभावित या उत्पन्न होती है-एक शब्दमे, जिसमे संवरनिजर्रात्मक धर्म नहीं होता, आत्म-शुद्धि नहीं होती, वह विशुद्ध अहिंसा या दया नहीं है और जिससे अपनी और दूसरेकी आत्म-शुद्धि होती है, वह विशुद्ध अहिंसा या दया है । ७ - जीना अहिंसा नहीं, मरना हिंसा नहीं, मारना हिसा है, नहीं मारना अहिंसा है । स्व-पर- प्राणोंकी रक्षा करना व्यावहारिक दया है । स्व-पर- आत्माकी रक्षा करना, शुद्धि करना पारमार्थिक दया है । ८ - मनसा, वाचा, कर्मणा किसी जीवका वध न करना, न कराना और न करतेको अच्छा समझना -- यही अभयदान है । ६-बल-प्रयोग, प्रलोभन और भय आदि हिंसात्मक प्रवृत्तियोंसे हिंसा नहीं मिटती । हिसा मिटती है हिंसक का हृदय परिवर्तन होनेसे । दण्ड- विधानसे हिंसकको मिटाया जा सकता है. हिंसाको नहीं । १० - प्राण-रक्षा लोक दृष्टिमे प्रिय है किन्तु श्रेयस् नहीं । भगवान् महावीरकी वाणी' है- "मोक्षार्थी किसीका भी प्रिय अप्रिय न करे ।" १ - पियमप्पियं कस्म वि नो करेज्जा । ( मूत्रकृताङ्ग १ - १० 1 ७ ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] ११ - सुख देनेसे सुख मिलता है यह सिद्धान्त व्यवहारमार्गका साधक है किन्तु संयमकी भापा यह नहीं । आत्म-सुख आत्म-संयमसे ही मिलता है। १२- जीव रक्षा या प्राण-रक्षा अहिंसाका परिणाम हो सकता है, होगा ही ऐसी बात नहीं - - पर उसका प्रयोजन नहीं । उसका प्रयोजन है राग-द्वपको मिटाना, वीतराग या अप्रमत्त बनना । १३- वृष्टिसे कृषि हरीभरी हो सकती है परन्तु वर्षा कृषिके लिए होती है - ऐसा नहीं कहा जा सकता । योंही अहिंसाके आचरणसे प्राण-रक्षा हो सकती है किन्तु वह प्राण-रक्षा के लिए होती है-ऐसी बात नहीं । १४ - या विपदासे बचाना समाजका सहज धर्म है और असंयमसे बचाना मोक्ष-धर्म या आत्म-धर्म है । समाज की दृष्टिसे पहला अनिवार्य है और मोक्षकी दृष्टिसे दूसरा । १५ – सेवाके भी दो रूप बनते है - (१) संयमपूर्ण सेवा मोक्ष का मार्ग है, वह फिर माता-पिता, गुरुजन, दीन-दुखी १ - इह मेगेउ भासति, सात सातेण विज्जति । जे तत्य आरिय मग्ग, परम च समाहिय ॥ मा एय अवमन्नता, अप्पेण लुपहा बहु | एतस्स अमोक्खाय, अय हारिव्व झूरह | सूत्रकृताङ्ग ३ | ४ १ ६ । ७ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] या किसीकी भी हो । (२) असंयममय सेवा संसारका मार्ग है। मोक्षके लिए मोक्ष मार्गकी सेवा आवश्यक होती है, संसारके लिए संसार-मार्गकी, दोनोंक साधक के लिए दोनोंके मार्गकी | १६- तेरापन्थी साधुओके सिवाय संसारके सभी प्राणी कुपात्र है तेरापंथकी ऐसी मान्यता नहीं है । कोई व्यक्ति सभी दृष्टियोसे सुपात्र या कुपात्र नहीं होता । सुपात्र या कुपात्र भिन्न-भिन्न अपेक्षासे होते है । एक गरीब और दीन व्यक्ति अनुकम्पा दानका पात्र है किन्तु मोक्ष-दानका पात्र नहीं है। और इसलिए नहीं है कि वह असंयमी है, अत्रती है, अत्यागी है। मोक्षार्थ दान का अधिकारी एकमात्र संयमी ही है - महाव्रती ही है । तेरापंथका सिद्धान्त यह है कि असंयमी मोक्षार्थ दानकी अपेक्षा कुपात्र है यानी उस दानका वह अधिकारी नहीं, योग्य नहीं । यहा 'कुपात्र' का अर्थ असंयमी है, दुराचारी नहीं । अनुकम्पायोग्य व्यक्तिका सहयोग करना और दुराचारी का सहयोग करना, एक कोटिके है—यह तेरापंथका सिद्धान्त नहीं है। अनुकम्पायोग्य व्यक्तिका सहयोग करना समाज-सम्मत है और दुराचारीका सहयोग करना समाज सम्मत भी नहीं है । १७ - लौकिक दया, दान, उपकार और सेवा करनेकी Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] मनाही' करना पाप है। तेरापन्थी इन कार्योंके करने वालोंको कभी नहीं रोकते। १८ इन लौकिक कार्योंको मोक्ष-धर्म या आत्म-धर्म-नहीं मानाजाता फिर भी इन आवश्यकताओंका प्रतिरोध नहीं कियाजाता। १-बाडो कोई खोले, तामें करत मनाही वह, साधु ना कसाई मे भी, नीच कहलात है। स्वेच्छा निज गेह भी लूटाव सर्व लोकन को, तेरापथी ताके कोई आडा नही आत है। पात्र औ कुपात्र एक मात्र तो न करे तामे खेय और ऊखर सो अन्तर बतात है। तुलमी भनन्त अन्त तन्त को विचारे ऐसे, सो ही इम काल प्रभू । तेरापथ पात है ॥ -आचार्य श्री तुलसी २-वरजणो ज्याहि रह्यो, मुनि वहरण जावे हो। देखत मागन फकीर कू, तो पाछा फिर आवे हो । मूत्र में जिन भाखियो, तेहवो दान दिरावे हो। कोई दान कुपात्र न दिये, तो देता आडा न आवे हो । __सो ही तेरापन्य पावे हो॥ --आचार्य श्रीभिक्षुके सम-सामयिक तत्वज्ञ श्रावक श्री शोभजी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] सामाजिक व्यक्तियोके सामने तीन प्रकारके कार्य होते है १-विहित २-निपिद्ध ३-अविहित-अनिपिद्ध मोक्षकी दृष्टिसे १-मोक्षकी आराधना विहित है। २-समाज-विरुद्ध कार्य निपिद्ध है। ३-समाजके उपयोगी कार्य अविहित-अनिपिद्ध है। उनमे आरम्भ होता है यानी वे मोक्षके लिए नहीं होते, इसलिए उनका मोक्ष-दृष्ठिसे विधान नहीं कियाजाता और वे समाजके लिए उपयोगी होते है इसलिए उनका वर्तमान-कालमे निषेध नहीं कियाजाता अथवा अमुक कार्य मत करो, इस रूपमे निपेध नहीं कियाजाता। समाजकी दृष्टि से १-समाज जिसका विधान करे, वह विहित । २-समाज जिसका निपेध करे, वह निषिद्ध । ३-समाज जिसकान विधान करे और न निपेध, वह अविहित-अनिषिद्ध। समाजकी व्यवस्थासे सम्बन्धित कार्य अविहित-अनिपिद्ध है। मोक्षधर्मकी दृष्टिसे इनका विधान और वार्तमानिक एवं वैयक्तिय निषेध नहीं होता। यह है आचार्य भिक्षके विचारोंकी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंस और दया दान अन्य विचारकों की दृष्टिमें आचार्य भिक्षुने जो विचार स्थिरता पूर्वक रखे, वे ही विचार अध्यात्म - योगमे डुबकिया लगाते समय अन्य विचारकोंने भी रखे है । उदाहरणस्वरूप कुछ पढिए, पता चलेगा-तत्त्व क्या है • यजुर्वेद - “मै समूचे संसारको मित्रकी दृष्टिसे देख । " [ विश्वस्याsह मित्रस्य चक्षुषा पश्यामि । ] मुण्डकोपनिषद् ११२१७- “ये यज्ञरूपी नौकाएं जिनमे अठारह प्रकारके कर्म जुडे हुए है, संसार-सागर से पार करनेके लिए असमर्थ है । जो ना समझ लोग, इन याज्ञिक कर्मोंको कल्याणकारी समझकर इनकी प्रशंसा करते है उन्हें पुनः पुनः जरा और मृत्युके चक्कर मे पडना पड़ता है ।" Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] [प्लावा ह्येते अद्दढा यज्ञस्पा, अष्टादशोक्तमवर येषु कर्म । एतच्छे यो येऽभिनन्दन्ति मूढा, जरामृत्यु पुनरेवापयन्ति ] वेद-व्यास__"वेदमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दो प्रकारके धर्म वतलाये गये है। कर्मके प्रभावसे जीव संसारके बन्धनमें बंधा रहता है और ज्ञान के प्रभावसे मुक्त होजाता है।" -महाभारत, शान्तिपर्व अ० २४१ भगवद्गीता-- "आसुरी प्रकृतिवाले लोग प्रवृत्ति और निवृत्तिका तत्त्व नहीं समझते । उनमें शौच, आचार और सत्य नहीं होता।" [प्रवृत्तिच निवृत्तिच, जनान, विदुरासुरा । न शौच नापि चाचारो, न सत्य तेषु विद्यते ॥] -अध्याय १५, श्लोक ७ "प्रवृत्ति, निवृत्ति, कार्य, अकार्य, वन्ध और मोक्षको जो जानती है, वह सात्त्विक बुद्धि है।" [प्रवृत्तिच निवृत्तिंच, कार्याकार्ये भयाभये । वन्ध मोक्ष च या वेत्ति, बुद्धि सापार्थ सात्त्विकी ॥] -अ० १७, श्लोक ३० Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] सारय-दर्शन___ "जो मोक्षका साधन नहीं है, लेकिन धर्ममें गिनकर साधन वर्णन करदिया तो उसका जो विचार है, वह केवल वन्धनका ही कारण होगा न कि मोक्ष का।" [ असायनान चिन्तन बन्धाय भरतवत् ] -अध्याय ४, सूत्र ७ पातजल-योग-भाष्य "सर्व प्रकारसे सर्व कालोंमे सर्व प्राणियोंके साथ अभिद्रोह न करना उनका नाम अहिंसा है।" [नत्र अहिमा सर्वदा सर्वभूतेषु अनभिद्रोह । ] दिगम्बर-आचार्य अमितगति "जो असंयतात्माको दान देकर पुण्यरूप फलकी आकांक्षा करता है, वह जलती आगमे वीज फेंक, धान पैदा करना चाहता है।" [वितीर्य यो दानममयतात्मने, जन फल काक्षति पुण्यलक्षणम् । वितीर्य वीज ज्वलिते स पावके, समीहते शस्यमपास्तदूषणम्"]] -अमितगति श्रावकाचार ११ वा परिच्छेद Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २० ] आचार्य हेमचन्द्र “यह असि, मसी, कृषि आदि व्यवस्थाका प्रवर्तन सावद्यसपाप है, फिरभी स्वामी ऋपभदेवने अपना कर्तव्य जानकर इसका प्रवर्तन किया। [एतच्च सर्व सावद्य-मपि लोकान कम्पया। स्वामी प्रवर्तयामास, जानन कर्त्तव्यमात्मन ॥] -त्रिपष्टि शलाका पु० चरित्र, ११२।६७१ "मनसा, वाचा, कर्मगा जीव हिंसा न करना, न कराना, न करतेका अनुमोदन करना यह अभयदान है। उनके जीवनपर्यायका नाश न करना, दुःख पैदा न करना, संक्लेश न देना यह अभयदान है।" [ भवत्यभयदान तु, जीवाना वधवर्जनम् । मनोवाक्काय करण-कारणान मतैरपि ॥ तत्पर्यायक्षयाटु खोत्पादात् सक्लेशतस्त्रिया। वघम्य वर्जनतेष्व-भयदान तदुच्यते ॥ ] अपभ चरित्र १५७-१६ धर्म-अधिकरण "निश्चय नयकी दृष्टिसे माता-पिता आदिका विनय करने रूप सतताभ्यासमें सम्यक्-दर्शन आदिकी आराधना नहीं होती इसलिए वह धर्मका अनुष्ठान नहीं है । व्यवहार-नय, स्थूलदृष्टि या लोकदृष्टिसे वह युक्त है।" Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] [निश्चयनययोगेन, निश्चयनयाभिप्रायेण यतो मातापित्राहिविनयस्वभावे सतताभ्यासे सम्यक्-दर्शनाऽऽद्यनाराधनारूपे धर्मान - प्ठान दुरापास्तमेव] श्री सागरानन्द सूरि "गृहस्थ धर्ममे रहनेवाले जीव जो कि माता-पिताकी सेवाके लिये बन्धेहुए है फिरभी उनकी सेवा लोकोत्तर धर्म तो नहीं है।" [गृहस्थ धर्म मा रहेला जीवो जो के माता पिता नी सेवा माटे वन्धायेला छ तो पण तेमनी सेवाए लोकोत्तर धर्म तो नथी । तेथीज उववाई आदि आगमो मा मात्र मातापिता नी सेवा करनार ने परलोकना आराधक पणनो नियम देखारत. नयी आ थी मात्र आ लोक मा जेवो ए उपकार करेलाछे जे ओती सेवा केवल लौकिकज गणवामा आवेली छ । ] दीक्षा नो सुन्दर स्वरूप, पानु १४६, १४७ "भले ही श्री भगवान महावीरने अभिग्रह किया हो, परन्तु वह अभिग्रह शास्त्र दृष्टिसे दोपयुक्त है। अशुभ कर्मके उदयसे दोक्षाको रोकनेवाला अभिग्रह किया। भलेही वे श्री महावीरभगवान् हों, फिरभी उनके द्वारा कियाहुआ वह अभिग्रह दोपयुक्त नहीं ऐसा नहीं कहा जासकता। [श्रीमहावीर भगवान भले अभिग्रह करचो पण ते अभिग्रह शास्त्र प्रमाणे दोषयुक्त छ । अशुभ कर्मोन, उदय थवाथी दीक्षा अटकावनारो अभिग्रह करयो भले ते श्री महावीर भगवान होय तो पण तेमणे ते करेलो अभिग्रह दोपयुक्त नथी एम तो न ज कहवाय । ] -प्रबुद्ध जैन पत्र १३६ ता०२०-२-३२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] "दूसरोंके द्वारा जिलाने, मराने, पीडा दिलाने अथवा दृमग को सहयोग देने, मारने, जिलाने, दुःखी करनेका विचार अथवा बुद्धि होती है, वह केवल मोहसे होनेवाली कल्पना है। अथवा वह मोहसे कल्पित है, तात्त्विक नहीं। कोई किसीका उपकार अथवा अपकार नहीं करता।" [वीजाने हाये जीवावाना भगवानाके पीडावाना के दुखी कन्वाना विचागेके बुद्धि थवी ते जीवन केवल मोह थी यती कल्पनाओज छे अथवा तो मोहथी कल्पेली छे तात्त्विक नथी कोई यानि उपकारके अपकार करतो नथी।] महावीर तत्त्वप्रकाश, प्रकरण ४, पत्र ४३ श्री देवचन्दजी----- "आत्म-गुणका हनन करनेवालाभावसे हिंसक है और आत्मधर्मकी रक्षा करनेवाला भावसे अहिंसक । आत्म-गुणकी रक्षा करना ही धर्म है और आत्म-गुणोंका विध्वंस करना अधर्म।' [आत्म गुणनो हणतो, हिंसक भावे थाय । आत्म धर्मनो रक्षक, भाव अहिंसा कहाय ॥ आत्मगुण-रक्षणा तेह धर्म। स्वगुण-विध्वसना तेह अधर्म ॥] -अध्यात्म गीता श्रीमद् राजचन्द्र-~ "लौकिक दृष्टि और अलौकिक (लोकोत्तर) दृष्टिमें वडा अन्तर है अथवा दोनोंका परस्पर विरुद्ध स्वभाव है। लौकिक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] दृष्टिमे व्यवहार-सासारिक कारणोंकी मुख्यता है और अलौकिक दृष्टिमें परमार्थ की। इसलिए अलौकिक दृष्टिको लौकिक दृष्टिके फलके साथ मिलादेना उचित नहीं ।" [ लौकिक दृष्टि अन े अलौकिक ( लोकोत्तर) दृष्टि मा मोटो भेद छे, अथवा एक बीजी दृष्टि परस्पर विरुद्ध स्वभाववाली छे लौकिक दृष्टि मा व्यवहार - सासारिक कारणोन, मुख्यपण छे माटे अलौकिक दृष्टिन े लौकिक दृष्टिना फलनी साथै प्राये ( घणु करीन ) मेलवी योग्य नहि ] — श्रीमद् राजचन्द्र, वर्ष १६ वा पृष्ठ ३४८ “हे काम | हे मान ! हे संग- उदय ! हे वचन वर्गणा । हे मोह ! हे मोहदया । हे शिथिलता । तुम सब क्यों अन्तराय करते हो ? परम अनुग्रह करके अब अनुकूल बनो । " 1 1 1 [ हे काम हे मान हे सग-उदय हे वचन वर्गणा । हे मोह | हे मोह-दया । हे शिथिलता । तमे शामाटे अन्तराय करो छो ? परम अनुग्रह करीन हवे अनुकूल थाव ] -तत्त्वज्ञान, पृष्ठ १२६ महात्मा गांधी मानवोंमे जीवन-संचार किसी न किसीकी हिंसासे होता है । इसलिए सर्वोपरि धर्मकी परिभाषा एक नकारात्मक कार्य, अहिंसासे की गई है। यह शब्द संहारकी संकडीमे बंधा हुआ है । दूसरे शब्दोंमे यह कि शरीरमें जीवन - संचारके लिए हिंसा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] स्वाभाविक रूपसे आवश्यक है। इसी कारण अहिंसाका पुजारी सदैव प्रार्थना करता है कि उसे शरीरके बन्धनसे मुक्ति प्राप्त हो।' -सी० एफ एन्डूज, - महात्मा गाधीके विचार ५११३८ "यह तो कहीं नहीं लिखा है कि अहिंसावादी किसी आदमी को मारडाले। उसका रास्ता तो सीधा है। एक को बचानेके लिए वह दूसरेकी हत्या नहीं कर सकता। उसका पुरुपार्थ और कर्तव्य तो सिर्फ विनम्रताके साथ समझाने-बुझानेमे है।" . -हिन्द-स्वराज्य पृष्ठ ७९ "अहिंसाके माने सूक्ष्म जन्तुओंसे लेकर मनुष्य तक सभी जीवोके प्रति सम-भाव । पूर्ण अहिंसा सम्पूर्ण जीवधारियोंके . प्रति दुर्भावनाका सम्पूर्ण अभाव है। इसलिए वह मानवेतर प्राणियों, यहातक कि विपधर कीड़ो और हिंसक जानवरोका भी आलिङ्गन कर सकती है।" -मगल-प्रभात पृष्ठ ८१ “एकवार महात्मा गांधीसे प्रश्न कियागया--कोई मनुष्य या मनुष्योंका समुदाय लोगोंके बड़े भागको कष्ट पहुंचारहा हो, दूसरी तरहसे उसका निवारण न होता हो तव उसका नाश करें तो यह अनिवार्य समझकर अहिंसामे खपेगा या नहीं ? महात्माजीने उत्तर दिया-अहिंसाकी जो मैने व्याख्या दी है. उसमे ऊपरके तरीके पर मनुष्य-वधका समावेश ही नहीं हो सकता। किसान जो अनिवार्य नाश करता है, उसे मैने कभी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ अहिंसामे गिनाया ही नहीं। वह वधे अनिवार्य होकर क्षग्य"" भलेही गिनाजाय किन्तु अहिंसा तो निश्चय ही नहीं है।" -अहिंसा पृष्ठ ५० स्थानकवासी आचार्य जवाहिरलालजी... ___ “कृपि, गोरक्षा, वाणिज्य, संग्राम, कुशील ये क्रियाएँ चाहे मिथ्याष्टिवी हों या सम्यगृहष्ठिकी हों, संसारके लिए होती हैं। इनमे मोक्ष-मार्गकी आराधना न होना प्रत्यक्ष सिद्ध है।" – सद्धर्ममण्डन, पृष्ठ ५५ “जो जिस दानके लायक नहीं है, वह यहाँ उस दानका अक्षेत्र समझाजाता है, जैसे मोक्षार्थ दानका साधुसे भिन्न अक्षेत्र है।" -सद्धर्ममण्डन, पृष्ठ १३५ साधु टी. एल. वासानी___ "सब जीवोंको अपने समान समझो और किसीको हानि मत पहुचाओ। इन शब्दोंमे अहिंसाका द्वयर्थी सिद्धान्तविधेयात्मक और निपेधात्मक सन्निहित है। विधेयात्मकमें एकता का संदेश है-सवमे अपने आपको देखो। निषेधात्मक उससे उत्पन्न होता है-किसीको भी हानी मत पहुंचाओ। सबमे अपने आपको देखनेका अर्थ है सवको हानि पहुंचानेसे बचना। • यह हानिरहितता सवमे एकही कल्पनासे विकसित होती है।" -हिन्दुस्तान ता० २८-३-५३ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] पन्यास मुनिश्री कल्याणविजयगणी "महावीरका खास लक्ष्य स्वयं अहिंसक वनकर दूसरोको अहिंसक वनानेका था, तव बुद्धकी विचार-सरणि दुःखितोके दुखोद्धारकी तरफ झकीहुई थी। ऊपर-ऊपर से दोनोंका लक्ष्य एकसा प्रतीत होता था परन्तु वास्तवमे दोनोंके मार्गमे गहरा अन्तर था। महावीर दृश्यादृश्य दुखकी जडको उखाड डालना मुख्य कर्तव्य समझते थे और बुद्ध दृश्य दु.खोंको दूर करना । पहिले निदानको दूर कर सदाके लिए रोगसे छुट्टि पानेका मार्ग बतलानेवाले वैद्य थे, तब दूसरे उदीर्ण रोगकी शान्ति करनेवाले डाकर।" -भगवान महावीर और बुद्ध मश्रुवाला “वुराईसे रहित और भलाईके अंशसे युक्त न्याय्य स्वार्थवृत्ति व्यवहार्य अहिंसा है। यह आदर्श या शुद्ध अहिंसा नहीं। " विजय रामचन्द्रसूरि "जिस दिनसे उन्होंने छव कायके जीवोंकी हिंसा न करने की प्रतिज्ञा ली तवसे वे अभयदानी वने-सव जीवोंको आत्मनुल्य समझ उन्हें भयभीत करनेसे निवृत्त बने ।” [जे दिवस थी तेओ छकाय जीवनी हिंसा नहि करवाना पचक्खाण करया त्यारथी तेओ अभयदागी थया एटले वधा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७] जीवाने पोताना आत्मयन् लेखी नेने भय उपजाववाना कार्यथी निवृत्त यया।] जैन प्रवचन वर्ष १० अंक ८, सं० १२७४ पृष्ट १०२ भुलक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य__ "राग. द्वप, मोह ये तीनो आत्मा के विकार है । ये जहाँ पर होते है, वहीं आत्मा कलि (पाप) का संचय करता है, दुखी होताहै, नाना प्रकारके पापादि कार्यों में प्रवृत्ति करता है। कभी मन्द-राग हुआ, तव परोपकारादि कार्योमे व्यग्र रहता है। तीनराग-द्वप हुआ, तब विपयोमे प्रवृत्ति करता है या हिंसादि पापो मे मग्न होजाता है। कहीं भी इसे शान्ति नहीं मिलती। जहा आत्मामे राग-द्वप नहीं होते, वहीं पूर्ण अहिंसाका उदय होता है। अहिंमा ही मोक्ष-मार्ग है। " -अने वान्त वर्ष ९ किरण ६, जून १९४८ कानजी स्वामी “जीव-दयामे जीवको बनाये रखना है या विकार को ? जीवको जीवरूपमे बनाये रखना, उसे विकारी न होने देना इसका नाम जीव-दया है। जीवको जीवरूपमे न पहिचानना, उसे विकारी और शरीरवाला मानना, उसका नाम जीव-हिंसा है-ज्ञानी लोग अपनी आत्माको विकारसे बचाते है, यही जीव-दया है।" [जीव-दयामा जीवन' टकावी राग्ववो छे के विकारने ? जीवन जीवपणे टकावी राखवो अने विकारपणे न थवा देवो एन. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] नाम जीव- दया छे, अन जीवन जीवपणे न ओलसता विकारी मानवो अने शरीरवालो मानवो तेनज नाम जीवहमा छे जीव कोन कहेवाय ते तन' खबर छे ? जीव तो पोनाना ज्ञान, दर्शन, आनन्द आदि अनन्त गुणानो पिण्ड छे हरेक जीव. पोताना गुणथी पूरो छे पर जीवो पोता पोताने स्वभावन' ओलखीन पर्याय मा शुद्धता प्रकट करे तो तेमनी दया थाय मारु तेमा काई चाले नहि - - आम जाणीन ज्ञानीओ पोताना आत्मान विकारथी बचावे छे एज जीवदया छे ] आत्मधर्म वर्ष ४, प्रथम श्रावण २४७३ श्री हरिभाऊ उपाध्याय— " गाधीजीने जब-जब उपवास किये है, तभी लोगोंको उनके प्राणोंकी अधिक चिन्ता हुई। यह स्वाभाविक जैसा तो है पर इसमे छिपे हमारे मोहको हमें समझलेना चाहिए, नहीं तो 'उपवास आदिका मर्म हम ठीक-ठीक न समझ पायेंगे ।" Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-संकटके प्रश्न और उनका समाधान जो व्यक्ति आचार्य भिक्षुके व्यापक, गम्भीर और गूढवादी टिकोणको धर्म-संकटके प्रश्नोंके रूपमे जनता के सामने रखते है, वे उनके विचारोंके साथ न्याय नहीं करते । धर्म-संकटके प्रश्न किसी भी सिद्धान्त के सामने खड़े किये जा सकते है किन्तु ऐसा करने मे सिद्धान्तकी सचाईकी परखकी भावना नहीं होती, उसमे सिर्फ सिद्धान्तको जनताकी दृष्टिमे नीचा दिखानेकी भावना होती है । उदाहरण के लिए आप कुछ पढिए पानीके जीवोंकी घात करना पाप है, यह जैनोंका सर्वसम्मत सिद्धान्त है । भिन्न-भिन्न श्रद्धावाले लोगोंको उभाडनेके लिए इसे धर्म-संकटका रूप दियाजाए कि जैन लोग गंगा स्नान करनेको पाप चतलाते है, राज्याभिषेकको पाप बतलाते है । इसी प्रकार आगीकी हिंसा, वायुकी हिंसा, वनस्पतिकी हिंसा पाप है । उनको भी विकृत रूपमे रखा जा सकता है कि Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ] जैन लोग मङ्गल-दीप जलानेको पाप बताते हैं, बीमारके लिए रोटी पकानेमे पाप बताते है, बीमारका निदान करनेके लिए विजली जलाने, एस-रे करनेमे पाप बताते हैं, रोगीक लिा पंखा चलानेमे पाप बताते है, रोगी माता-पिताको कन्ट मूल खिलानेमे पाप बताते हैं, रोगीको स्नान करानेमे पाप बताते है आदि-आदि। __ अब जरा सोचिए। ऊपरकी पंक्तियोमे क्या शुद्ध भावना है ? ये उदाहरण जैनोकी अहिंसाके व्यापक सिद्धान्तोका म्बम्प बतानेवाले हैं या उनके प्रति घृणा फैलानेवाले ? जन-मानसकी रुचि और करुणापूर्ण वातोंके उदाहरण बड़े कर जन-साधारणको भुलावेमे डालना किसी भी व्यापक मिद्धात के साथ न्याय नहीं होता। तेरापन्यके व्यापक सिद्धान्तोंके साथ ऐसा अन्याय होता रहा है। उसका अर्थ लोगोको उत्तेजित करनेके सिवाय और कुछ भी नहीं लगता। तेरापन्थकी मान्यता जैन-सूत्रोंकी मान्यता है। जैन-सूत्रोंके अनुसार तेरापन्यकी मान्यता है-असंयमी' को सजीव या निर्जीव, एपणीय या अने१-समणोवासगस्स ण भते । तहास्व असजय अविग्य-पडिह्य पच्चक्खायपावकम्म फासुएण वा, अफासुएण वा, एनणिज्जेण वा, अणेसणिज्जेण वा असण-पाण० जाव किं कज्जइ? [उ०] गोयमा एगतसो से पावे कम्मे कज्जइ, नत्यि से कावि निज्जरा कज्जइ। -भगवती ८।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ ] पणीय अशन-पान-खाद्य-स्वाध दे, उससे पाप-कर्म बंधता है, निर्जरा नहीं होती। ___ यह मोक्ष-दृष्टि है। जनताको उभाड़नेके लिए इसको सामाजिक स्तरपर लाकर इस रूपमे रखाजाता है-तेरापंथी कहते है कि दीन-हीन मनुष्योंकी रोटी-पानीसे सहायता करना पापहै । मोक्षार्थ-दानका अधिकारी संयमी ही है। संयमीके सिवाय शेष प्राणी यानी असंयमी मोक्षार्थ दानके पात्र-अधिकारी नहीं है। जनताको उभाड़नेके लिए इसे यह रूप दियाजाता है कि तेरापंथी साधु अपने सिवाय सभी प्राणियोको कुपात्र कहते है, श्रावकको कुपात्र कहते है, माता-पिताको कुपात्र कहते है। असंयमी जीवनकी इच्छा करना, उसका पालन-पोषण करना, उसे टिकाये रखनेका प्रयत्न करना रागकी वृत्ति है। जनताको उभाडनेके लिए इसे बड़े करुणापूर्ण ध्यान्तोंके रूपमे रखाजाता है तेरापंथी कहते हैं कि मोटरकी झपटमे आतेहुए अथवा ऊपरसे गिरतेहुए बच्चेको बचाना पाप है। १-समणोवासगस्स ण भते । तहारूव समण वा माहण वा फासु एसणिज्जेण असण-पाण-खाइम-साइमेण पडिला माणस्स किं कज्जति [30] गोयमा । एगतसो निज्जरा कज्जइ, नत्यि य मे पावे कम्मे कज्जति । -~-भगवती ८ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना [ ३२.] गायोके बाटेमे आग लगजाय तो उन्हें बचाना पाप है। मरतेको बचाना पाप हे आदि-आदि । हमारा मुख्य कार्यक्रम है अहिंसा, सत्य आदिका प्रचार करना, मनुष्य-जीवनको नैतिक व मदाचारपूर्ण बनाना. आध्यात्मिकताका उन्नयन करना। माता-पिताकी सेवा करना पाप है, मरतेको बचाना पाप है. गरीवोंकी सेवा करना पाप हे आदि-आदि वान हमारे मिद्धात प्रचार या कार्यक्रमका विपय नहीं है। समाजकी आवश्यकता को छुडायं, यह न सम्भव है और न हमारा मामान्य उई भ्य । हमारा उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि लोग समाज-धर्म या व्यवहार धर्मको आत्म-धर्म जो कि मोक्षका साधन है, सममनेकी भूल न कर । समाजकी उपयोगिता और आवश्यकताको मोक्षकी दृष्टिसे और मोक्षकी वस्तु-स्थितिको समाजकी हिसे तोलनेकी भूल न करें। सामाजिक कर्तव्योंका मापदण्ड समाज-दृष्टि और मोक्षकर्तव्योका मापदण्ड आत्म-दृष्टि रह, कोई दुविधा नहीं आती। दुविधा तव आती है, जब दोनोको एक दृष्ठिसे मापाजाता है। __भारतकी सामाजिक व्यवस्थामे संयुक्त परिवारकी प्रथा है। उसे प्रोत्साहन मिले, इस दृष्टिसे माता-पिताकी सेवा करना महान् धर्म, पतिकी सेवा करना पत्नीका धर्म आदि-आदि संस्कार डालेगये किन्तु जिन राष्ट्रोमे पति और पत्नीके समान अधिकार है, वहा 'पति-सेवा धर्म' इस सूत्रका कोई मूल्य नहीं। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] सामाजिक व्यवस्थाको प्रोत्साहन देनेके लिए समाज-धर्म मानाजाय. यह दूसरी बात है किन्तु उसे मोक्षका धर्म बताना बाञ्छनीय नहीं । ऐसा करके लोगोको वास्तविक धर्मसे दूर रखना है। मोक्षकी हट समाजकी दृष्टिसे नहीं मिलती । मोक्षकी दृष्टि हे माता, पिता, स्त्री, पुत्र, धन, धान्य सबको छोडो। ये सब दुःखके कारण है । भगवान् महावीरने कहा है"मायाहि' पियाहि लुप्पइ" - कई मनुष्य माता-पिता तथा स्वजनवर्गके स्नेहमे पडकर धर्मके लिए उद्योग नहीं करते हैं । वे उन्हीं के द्वारा संसार भ्रमण कराये जाते है। इसी प्रकार सूत्रकृताग' (श२|१|२०) मे कहा है- "संयमहीन पुरुप माता-पिता आदि अन्य पदार्थ आसक्त होकर मोहको प्राप्त होते है ।" अध्यात्म मार्ग एकत्व भावनाका प्राधान्य है । माता-पिता आदिके सम्बन्ध व्यावहारिक है । इसीलिए भगवान् कहते हैं "गस्स' गतीय आगति, विदुमंता मरणं ण मन्नइ ।” संसार में आना और जाना अकेलेका ही होता है। अतः विद्वान् पुरुष धन, स्वजनवर्गको शरण नहीं मानता। चार्य शंकरके शब्दोमे "काते कान्ता कस्ते पुत्र, मसारोऽयमतीव विचित्र ।" १ – मूत्रकृताग १ । २ । १ । ३ २- अन्न अन्नेहि मूच्छिया, मोह जति नरा असबुडा । विसम विममेहि गाहिया, ते पावेहिं पुणो पगव्भिया । ३ – सूत्रकृताग १।२।३।१७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] ' अर्थात् कौन तेरी स्त्री है और कौन तेरा पुत्र ! यह संमार बडा विचित्र है। समाजकी दृष्टि है इनका भरण-पोपण और संग्रह करो, ये सव सुखके साधन हैं। गृहस्थ जीवनमे मोक्षधर्म और समाज धर्म दोनोंका समन्वय होता है। जितना याग है, वह मोक्षका आचरण है और जितना वन्धन है, वह समाजकी स्थिति है। दोनोंको एक समझनेकी और एक दृष्टिसे समझनेकी भूल नहीं होनी चाहिए। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदार बनिए 'विभिन्ना पन्थान' - अनेक मार्ग है । कौन किसे अपनाए, यह अपनी इच्छाके अधीन है। प्रत्येक व्यक्तिके लिए विचारस्वातंत्र्यका द्वारा खुला है । दार्शनिक क्षेत्रमे वलप्रयोगके लिए कोई स्थान नहीं । जिसे जो सिद्धान्त उपादेय लगे, उसे अपनाए, उसका प्रचार करे - यह अधिकारकी बात है । दूसरोंके सिद्धान्तोंको तोड़-मरोड़कर जनताके सम्मुख रखना धर्म - मर्यादा के प्रतिकूल है । धार्मिक व्यक्तिमे तितिक्षा होनी चाहिए, परधर्म - साहिष्णुताका भाव होना चाहिए। दूसरोंके धर्मों पर आक्षेप या उनकी कटु आलोचना करना आत्मदर्शी के लिए‍ नितान्त अनुचित है । कविने कहा है "योऽपि न सहते हितमुपदेश तदुपरि मा कुरु कोपम् ।” १ – गान्तसुधारस Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] जो तेरा हित उपदेश न माने, उसपर भी क्रोध मत कर । दूसरोंकी बुराई करनेवाला अपनी धार्मिकताको भी खो बैठता है । तेरापन्थ एक प्रगतिशील और जीवित समाज है इसलिए उसका कई वर्गों द्वारा विरोध भी होता है । विरोधका उद्देश्य है, तेरापन्थकी मान्यताओंको विकृत बनाकर जनताको भ्रान्त करना । हमे इसका कोई खेद नहीं । विरोधका स्वागत करतेहुए हमे बड़ा हर्प होता है । जैसाकि आचार्यश्री तुलसीने लिखा है " जो हमारा हो विरोध, हम उसे समझे विनोद | सत्य सत्य- शोध मे तव ही सफलता पायेगे ॥ किन्तु धार्मिक एकताकी पुष्टिके लिए यह आवश्यक है कि एक दूसरेके सिद्धान्तोंके प्रति घृणा फैलानेकी चेष्टा न की जावे । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्र प्रेरणा जनताका यह सहज कर्तव्य है कि विरोधी प्रचारके आधारपर वह अपनेको भ्रान्त न बनाये। तेरापन्थके दृढ संगठन, मजबूत आचार और जन-कल्याणकारी कार्यक्रमका निकटसे अध्ययन करे और आचार्य श्री तुलसीगणीका सत्संग कर उनके द्वारा प्रवर्तित अणुव्रतीसंघके नियमोंको जीवनमे उतारकर नैतिक प्रतिष्ठाकी पुनः स्थापना करें।