________________
[ १० ] है-"मुखका व्यपरोपण या वियोग न करना और दुःखका संयोग न करना संयम है।' यह निवृत्तिरूप अहिंसा है। आचारागसूत्रमे धर्मकी परिभाषा बताते हुए लिखा है-"सब प्राणियोंको मत मारो, उनपर अनुशासन मत करो, उनको अधीन मत करो, दासदासीकी भांति पराधीन बनाकर मत रखो, परिताप मत दो, प्राण-वियोग मत करो यह धर्म ध्रुव, निल
और शाश्वत है । खेदन तीर्थंकरोंने इसका उपदेश किया है।" यह भी निवृत्तिरूप अहिंसा है । भगवान् महावीर ने प्रवृत्तिल्प- अहिंसाका भी विधान किया है. किन्तु मव प्रवृत्ति अहिंसा नहीं होती।
चारित्रमे जो प्रवृत्ति है, वही अहिंसा है। अहिंसा के क्षेत्रमे आत्मलक्षी प्रवृत्तिका विधान है और संसारलक्षी या परपदार्थलक्षी प्रवृत्तिका निषेध। ये दोनों क्रमशः विधिरूप अहिंसा और निपेधरूप अहिंसा बनते है । देखिए उत्तराध्ययन २४।२६
"एयाओ पचममिडओ, चरणम्म पवत्तणे।
गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, अनुभत्येसु मन्वसा ।" १-मचे पाणा मव्वे भूया सबे जीवा सब्बे मत्ता न हन्तव्वा, न
अज्जावेयव्वा, न परिघेतव्वा, न परियावयन्वा, न उद्दवेयवा। एस धम्मे युद्धे निमिए नामए ।
आचाराग ४।१ । १२७