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________________ [ ३३ ] सामाजिक व्यवस्थाको प्रोत्साहन देनेके लिए समाज-धर्म मानाजाय. यह दूसरी बात है किन्तु उसे मोक्षका धर्म बताना बाञ्छनीय नहीं । ऐसा करके लोगोको वास्तविक धर्मसे दूर रखना है। मोक्षकी हट समाजकी दृष्टिसे नहीं मिलती । मोक्षकी दृष्टि हे माता, पिता, स्त्री, पुत्र, धन, धान्य सबको छोडो। ये सब दुःखके कारण है । भगवान् महावीरने कहा है"मायाहि' पियाहि लुप्पइ" - कई मनुष्य माता-पिता तथा स्वजनवर्गके स्नेहमे पडकर धर्मके लिए उद्योग नहीं करते हैं । वे उन्हीं के द्वारा संसार भ्रमण कराये जाते है। इसी प्रकार सूत्रकृताग' (श२|१|२०) मे कहा है- "संयमहीन पुरुप माता-पिता आदि अन्य पदार्थ आसक्त होकर मोहको प्राप्त होते है ।" अध्यात्म मार्ग एकत्व भावनाका प्राधान्य है । माता-पिता आदिके सम्बन्ध व्यावहारिक है । इसीलिए भगवान् कहते हैं "गस्स' गतीय आगति, विदुमंता मरणं ण मन्नइ ।” संसार में आना और जाना अकेलेका ही होता है। अतः विद्वान् पुरुष धन, स्वजनवर्गको शरण नहीं मानता। चार्य शंकरके शब्दोमे "काते कान्ता कस्ते पुत्र, मसारोऽयमतीव विचित्र ।" १ – मूत्रकृताग १ । २ । १ । ३ २- अन्न अन्नेहि मूच्छिया, मोह जति नरा असबुडा । विसम विममेहि गाहिया, ते पावेहिं पुणो पगव्भिया । ३ – सूत्रकृताग १।२।३।१७
SR No.010303
Book TitleJain Shastra sammat Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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