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[ ५ ] हिंसाके सर्व-त्यागका, सर्वत्याग न करसके उसके लिए अंशत्यागका विधान कर सकता है। किन्तु वह कहीं, कभी और किसी भी हालतमे हिंसा करनेका विधान नहीं कर सकता।
आवश्यक हिंसाका जहा कहीं भी विधान या समर्थन मिलता है, वह समाज-शास्त्रका विषय है। समाज-शास्त्र ही समाजकी आवश्यकताके अनुसार थोडी या अधिक हिंसाको प्रोत्साहन देते है। अध्यात्ममार्गी ऐसा नहीं कर सकता। तात्पर्य यह हुआ-अहिंसा मोक्षका मार्ग है और हिंसा संसारका । समाज मे हिंसा और अहिंसा,दोनो चलते है। जितनी हिंसा है उतना संसार है और जितनी अहिंसा है उतनी मुक्ति है । हिंसा और अहिंसाको, संसार और मुक्तिको एक नहीं समझना चाहिए । यही जैन-दर्शनका मर्म है और यही आचार्य भिक्षु या तेरापंथ के दार्शनिक विचारोंकी पृष्ठभूमि है।