Book Title: Jain Shastra sammat Drushtikon
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 46
________________ [ ३० ] जैन लोग मङ्गल-दीप जलानेको पाप बताते हैं, बीमारके लिए रोटी पकानेमे पाप बताते है, बीमारका निदान करनेके लिए विजली जलाने, एस-रे करनेमे पाप बताते हैं, रोगीक लिा पंखा चलानेमे पाप बताते है, रोगी माता-पिताको कन्ट मूल खिलानेमे पाप बताते हैं, रोगीको स्नान करानेमे पाप बताते है आदि-आदि। __ अब जरा सोचिए। ऊपरकी पंक्तियोमे क्या शुद्ध भावना है ? ये उदाहरण जैनोकी अहिंसाके व्यापक सिद्धान्तोका म्बम्प बतानेवाले हैं या उनके प्रति घृणा फैलानेवाले ? जन-मानसकी रुचि और करुणापूर्ण वातोंके उदाहरण बड़े कर जन-साधारणको भुलावेमे डालना किसी भी व्यापक मिद्धात के साथ न्याय नहीं होता। तेरापन्यके व्यापक सिद्धान्तोंके साथ ऐसा अन्याय होता रहा है। उसका अर्थ लोगोको उत्तेजित करनेके सिवाय और कुछ भी नहीं लगता। तेरापन्थकी मान्यता जैन-सूत्रोंकी मान्यता है। जैन-सूत्रोंके अनुसार तेरापन्यकी मान्यता है-असंयमी' को सजीव या निर्जीव, एपणीय या अने१-समणोवासगस्स ण भते । तहास्व असजय अविग्य-पडिह्य पच्चक्खायपावकम्म फासुएण वा, अफासुएण वा, एनणिज्जेण वा, अणेसणिज्जेण वा असण-पाण० जाव किं कज्जइ? [उ०] गोयमा एगतसो से पावे कम्मे कज्जइ, नत्यि से कावि निज्जरा कज्जइ। -भगवती ८।।

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