Book Title: Jain Shastra sammat Drushtikon
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 43
________________ [ ७] जीवाने पोताना आत्मयन् लेखी नेने भय उपजाववाना कार्यथी निवृत्त यया।] जैन प्रवचन वर्ष १० अंक ८, सं० १२७४ पृष्ट १०२ भुलक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य__ "राग. द्वप, मोह ये तीनो आत्मा के विकार है । ये जहाँ पर होते है, वहीं आत्मा कलि (पाप) का संचय करता है, दुखी होताहै, नाना प्रकारके पापादि कार्यों में प्रवृत्ति करता है। कभी मन्द-राग हुआ, तव परोपकारादि कार्योमे व्यग्र रहता है। तीनराग-द्वप हुआ, तब विपयोमे प्रवृत्ति करता है या हिंसादि पापो मे मग्न होजाता है। कहीं भी इसे शान्ति नहीं मिलती। जहा आत्मामे राग-द्वप नहीं होते, वहीं पूर्ण अहिंसाका उदय होता है। अहिंमा ही मोक्ष-मार्ग है। " -अने वान्त वर्ष ९ किरण ६, जून १९४८ कानजी स्वामी “जीव-दयामे जीवको बनाये रखना है या विकार को ? जीवको जीवरूपमे बनाये रखना, उसे विकारी न होने देना इसका नाम जीव-दया है। जीवको जीवरूपमे न पहिचानना, उसे विकारी और शरीरवाला मानना, उसका नाम जीव-हिंसा है-ज्ञानी लोग अपनी आत्माको विकारसे बचाते है, यही जीव-दया है।" [जीव-दयामा जीवन' टकावी राग्ववो छे के विकारने ? जीवन जीवपणे टकावी राखवो अने विकारपणे न थवा देवो एन.

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