Book Title: Jain Shastra sammat Drushtikon
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 37
________________ [ २१ ] [निश्चयनययोगेन, निश्चयनयाभिप्रायेण यतो मातापित्राहिविनयस्वभावे सतताभ्यासे सम्यक्-दर्शनाऽऽद्यनाराधनारूपे धर्मान - प्ठान दुरापास्तमेव] श्री सागरानन्द सूरि "गृहस्थ धर्ममे रहनेवाले जीव जो कि माता-पिताकी सेवाके लिये बन्धेहुए है फिरभी उनकी सेवा लोकोत्तर धर्म तो नहीं है।" [गृहस्थ धर्म मा रहेला जीवो जो के माता पिता नी सेवा माटे वन्धायेला छ तो पण तेमनी सेवाए लोकोत्तर धर्म तो नथी । तेथीज उववाई आदि आगमो मा मात्र मातापिता नी सेवा करनार ने परलोकना आराधक पणनो नियम देखारत. नयी आ थी मात्र आ लोक मा जेवो ए उपकार करेलाछे जे ओती सेवा केवल लौकिकज गणवामा आवेली छ । ] दीक्षा नो सुन्दर स्वरूप, पानु १४६, १४७ "भले ही श्री भगवान महावीरने अभिग्रह किया हो, परन्तु वह अभिग्रह शास्त्र दृष्टिसे दोपयुक्त है। अशुभ कर्मके उदयसे दोक्षाको रोकनेवाला अभिग्रह किया। भलेही वे श्री महावीरभगवान् हों, फिरभी उनके द्वारा कियाहुआ वह अभिग्रह दोपयुक्त नहीं ऐसा नहीं कहा जासकता। [श्रीमहावीर भगवान भले अभिग्रह करचो पण ते अभिग्रह शास्त्र प्रमाणे दोषयुक्त छ । अशुभ कर्मोन, उदय थवाथी दीक्षा अटकावनारो अभिग्रह करयो भले ते श्री महावीर भगवान होय तो पण तेमणे ते करेलो अभिग्रह दोपयुक्त नथी एम तो न ज कहवाय । ] -प्रबुद्ध जैन पत्र १३६ ता०२०-२-३२

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