Book Title: Jain Shastra sammat Drushtikon
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 29
________________ [१३] ११ - सुख देनेसे सुख मिलता है यह सिद्धान्त व्यवहारमार्गका साधक है किन्तु संयमकी भापा यह नहीं । आत्म-सुख आत्म-संयमसे ही मिलता है। १२- जीव रक्षा या प्राण-रक्षा अहिंसाका परिणाम हो सकता है, होगा ही ऐसी बात नहीं - - पर उसका प्रयोजन नहीं । उसका प्रयोजन है राग-द्वपको मिटाना, वीतराग या अप्रमत्त बनना । १३- वृष्टिसे कृषि हरीभरी हो सकती है परन्तु वर्षा कृषिके लिए होती है - ऐसा नहीं कहा जा सकता । योंही अहिंसाके आचरणसे प्राण-रक्षा हो सकती है किन्तु वह प्राण-रक्षा के लिए होती है-ऐसी बात नहीं । १४ - या विपदासे बचाना समाजका सहज धर्म है और असंयमसे बचाना मोक्ष-धर्म या आत्म-धर्म है । समाज की दृष्टिसे पहला अनिवार्य है और मोक्षकी दृष्टिसे दूसरा । १५ – सेवाके भी दो रूप बनते है - (१) संयमपूर्ण सेवा मोक्ष का मार्ग है, वह फिर माता-पिता, गुरुजन, दीन-दुखी १ - इह मेगेउ भासति, सात सातेण विज्जति । जे तत्य आरिय मग्ग, परम च समाहिय ॥ मा एय अवमन्नता, अप्पेण लुपहा बहु | एतस्स अमोक्खाय, अय हारिव्व झूरह | सूत्रकृताङ्ग ३ | ४ १ ६ । ७

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